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________________ ९० श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन-ती उन गोम्मटेश-प्रभु के सौम्य-स्प को झाकी । वर्षों हुए कि विज्ञ शिल्पकार ने आको ॥ कितनी है फलापूर्ण, विशद्, पुण्य की साको । दिल सोचने लगता है, चूमू हाय या टाको ? है श्रवणबेलगोल में वह आज भी मुस्थित । जिसको विदेशी देख के होते है चक्तिचित ।। कहते है उसे विश्व का वे आठवा अचरज । खिल उठता जिसे देख अन्तरग का पफज ॥ झुकते है और लेते है श्रद्धा से चरणरज । ले. जाते है विदेश उनके अक्स का कागज ॥ वह धन्य, जिसने दर्शनो का लाभ उठाया । वेशक सफल हुई है उसी भक्त की काया ॥ उस मूति से है शान कि शोभा है हमारी । गौरव है हमें, हम कि है उस प्रभु के पुजारी ॥ जिसने कि गुलामी को वला सिर से उतारी । स्वाधीनता के युद्ध की था जो कि चिगारी ॥ आजादी सिखाती है गोम्मटेश को गाया। झुकता है अनायास भक्तिभाव से माया ॥ 'भगवत्' उन्हीं-सा शौर्य हो, साहस हो, सुबल हो। जिससे कि मुक्ति-लाभ ले, नर जन्म सफल हो। अनेकांत से [-भगवत जैन
SR No.010490
Book TitleShravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkrishna Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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