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________________ ८८ श्रवणवेल्गोल और दक्षिण के अन्य जन-तीर्थ दरकार नहीं ऐसे घृणित राज्य की मन को। __ मै छोड़ता हूँ आज से इस नारफीपन को ।' यह कहके चले वाहूवलि मुक्ति के पथ पर । सब देखते रहे कि हुए हो सभी पत्यर ॥ भरतेश के भीतर था व्ययाओं फा ववण्डर । स्वर मौन था, अटल थे, कि धरती पे थी नजर ॥ आँखों में आगया था दुखी-प्राण का पानी । या देख रहे थे खड़े वैभव की कहानी ॥ xxx जाकर के बाहुबलि ने तपोवन में जो किया । उस कृत्य ने संसार सभी दंग कर दिया । तपत्रत किया कि नाम जहां में कमा लिया । कहते है तपस्या किसे, इसको दिखा दिया ॥ कायोत्सर्ग वर्ष भर अविचल खड़े रहे । ध्यानस्य इस कदर रहे, कवि किस तरह कहे ? मिट्टी जमी शरीर से सटकर, इधर-उधर । फिर दूब उगी, वेलें बढी बाहो पे चढ कर ॥ वाबी बना के रहने लगे मौज से फनघर ॥ मृग भी खुजाने खाज लगे ठूठ जानकर ॥ निस्पृह हुए शरीर से वे आत्मध्यान में । चर्चा का विषय बन गए सारे जहान में ॥ पर, शल्य रही इतनी गोमटेश के भीतर । 'ये पर टिके है मेरे चक्री की भूमि पर।' इसने ही रोक रखा था कैवल्य का दिनकर । वरना वो तपस्या थी तभी जाते पाप झर ॥
SR No.010490
Book TitleShravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkrishna Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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