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________________ श्रवणबेल्गोल और दक्षिण के अन्य जैन-तीर्थ उत्सव थे राजधानी के हर शख्स के घर में।। खुशियां मनाई जा रही थीं खूब नगर में ॥ थे आ रहे चक्रोश, चक्ररत्न ले कर में। चर्चाएं दिग्विजय की थीं घर-घर में डगर में ॥ इतने में एक बाधा नई सामने आई। दम-भर के लिए सबको मुसीवत-सी दिखाई ॥ जाने न लगा चक्र नगर-चार के भीतर । सब कोई खड़े रह गए जैसे कि हों पत्यर ॥ सब रुक गई सवारियां, रास्ते को घेर कर । गोया थमा हो मत्र की ताकत से समुन्दर ॥ चक्रोश लगे सोचने-'ये माजरा क्या है ? है किसकी शरारत कि जो ये विघ्न हुमा है ?' क्योंकर नहीं जाता है चक्र अपने देश को ? । है टाल रहा किसलिये अपने प्रवेश को ? । आनन्द में क्यों घोल रहा है कलेश को ? मिटना रहा है शेष, कहा के नरेश को ? बाकी बचा है कौन-सा इन छहों खण्ड में ? - जो डूब रहा आज तक अपने घमण्ड में ॥ जब मंत्रियों ने फिक्र में चक्रोश को पाया । माया झुका के, सामने आ भेद बताया ॥ 'बाहुवली का गढ़ नहीं अधिकार में आया । है उसने नहीं आके अभी शीश झुकाया ॥ जबतक न वे अवीनता स्वीकार करेंगे । तवतक प्रवेश देश में हम कर न सकेगें ।।। क्षण-भर तो रहे मौन, फिर ये वैन उचारा 'भेजो अभी आदेश उन्हें दूत के द्वारा ॥
SR No.010490
Book TitleShravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkrishna Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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