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________________ श्वणवेल्गोल-स्तवन ७७ इस उन्नति के मूल केन्द्र में जीवन ज्योति जगाओ वन्दनीय हे जैनतीर्य तुम युग-युगमें जय पाओ ॥ कंचे सत्तावन सुफीट पर नभसे शोश लगाए शोभा देती जैनधर्म का उज्ज्वल यश दरशाए जिसने कौशल-कला-कलाविद के सम्मान बढ़ाए देख-देख हैदर-टीपू सुल्तान जिसे चकराए ____ आमो इसका गौरव लख अपना सम्मान बढ़ाओ वन्दनीय हे जैनतीयं तुम युग-युगमें यश पाओ । गग-वंश के राचमल्ल नृप विश्व-कीति-व्यापक है नृप-मन्त्री चामुण्डरायजी जिसके संस्थापक है जो निर्माण हुआ नौसे नब्बे में यशवर्द्धक है राज्य-वंश मैसूर आजकल जिसका संरक्षक है उसकी देख-रेख रक्षामें अपना योग लगाओ वन्दनीय हे जैनतीर्य तुम युग-युगम जय पाओ ॥ कहे लेखनी पुण्य-तीर्य क्या गौरव-कथा तुम्हारी विस्तृत कीति-सिन्धु तरने में है असमर्थ विचारी नत मस्तक अन्तस्तल तन-मन-धन तुम पर वलिहारी शत-शत नमस्कार तुम को हे नमस्कार अधिकारी फिर सम्पूर्ण विश्व में अपनी विजय-ध्वजा फहरामो वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम युग-युगमें जय पाओ । ० सि० भास्कर से] [कल्याणकुमार जैन 'शशि'
SR No.010490
Book TitleShravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkrishna Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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