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________________ . अर्थात् अष्टमी सहस्रीके पढ़ लेनेपर अन्य सेकड़ों ग्रंथों के पढ़नेसे क्या लाभ है यानी कुछ भी लाभ नहीं है इसीके श्रवणसे स्त्र तथा पर समय (शास्त्र) अच्छी तरह ज्ञात हो जाता है। इसी प्रकार स्वयंभूस्तोत्र, समयप्तार भादि ग्रंथ भी साहि. त्योन्नतिके अच्छे दर्शक हैं। समयसारके कर्त्ताने भात्माकी अद्वैत सिद्धि में जो आत्मात्मनंमात्मनात्मनेऽऽमनरात्मनि चेतयते-यह षकारक लगाये हैं । यह भी उच्चकोटिका साहित्य ही है क्योंकि यही आत्माके प्रत्यक्ष करनेका उराय है । . तुलसीदासनी कृत रामायण जो कि साहित्योन्नतिका एक निदर्शक कहा जाता है उससे आप टोडरमलजी कन गोमट्टसारकी हिन्दी टोकाका मिलान करें तो आपको भलीभांति विदित हो नायगा कि यह कहीं उससे बढ़कर साहित्योन्नतिका उदाहरण है । साहित्य लालित्यके साथ ही आप इसके अंदर एक और विशेषता पावेंगे वह यह कि कितने कठिन प्रमेयको पंडितनीने प्रसादगुणयुक्त हिंदी गद्यमें सरल कर दिया है । ___ महापुराण, पार्थाभ्युदय, सप्तमातरिङ्गिणी आदि कितने ही अन्य ग्रंथ भी साहित्यकी उच्चताको लिए हुए सिद्धांत न्याय विषयके अच्छे प्रतिपादक हैं । .. मैन साहित्यके उन्नत होनेमें दृप्तरा यह भी कारण है कि जितनी वर्ण संख्या दूसरोंके यहां मानी गयी है वह परिपूर्ण नहीं। पाणिनीयने ४३ इङ्गलिश भाषामें २६ किन्हीने ३२ इत्यादि वर्ण संख्या मानी है। जैनेन्द्र व्याकरणमें ४६ वर्ण माने गये हैं। द्वादशाङ्गमें तो ६४ वर्ण माने गये हैं इससे भी जैन साहित्य को पूर्णता ज्ञात होती है । किसीभी बातको वक्रोक्ति आदिके रूपमें कहनेसे ही उसकी शोमा होनाती है क्योंकि " वक्रोक्तिः काव्यनीवितम् " उदाहरणके लिए लीजिए कि स्त्रीको अपने पतिसे यह कहना था कि आप यहांसे चले जावेंगे तो मैं मर जाऊंगी इस बातको उसने वक्रोक्तिके द्वारा कहकर सरस पद्य बना दिया गच्छ गच्छ सिचेत्कान्त पन्थानः सन्तु ते शिवाः । ममापि जन्म तत्रैव भूयात्र गतो भवान् ॥ . अर्थात् हे कान्त ! यदि तुम जाते हो तो जाओ, तुम्हारे कल्याणकारी मार्ग हों लेकिन 'यह अवश्य ज्ञात रहे कि मेरा जन्म भी वहीं होगा जहां कि आप उपस्थित होंगे। यह एक साधारण बात ही वक्रोक्तिसे कहने पर लोंगोंकी प्रीति के लिए होजाती है। हम साधारण रीतिसे किसीसे पूछेगे कि आप कहांसे आये हैं और कहां जावेंगे तो इस तरहका हमारा पूछना सीधी भाषामें उतना अच्छा न मालूम होगा जितना कि साहित्यसे अलङ्कृत करने पर ज्ञात होगा यानी वह कोनसे मनुष्य हैं जिनकी कि मुखकमल श्री आपचन्द्रोयमके यहां
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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