SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . ... .. .. श्रीयुत हर्षकवि राजा नलकी विद्याके वर्णनमें कहते हैं--- "अधीतियोधचरणाप्रचारण, दशः चतुत्रा प्रणेयन्नुपाधिभिः । ..चतुर्दशत्वं कृतवान् कुतः स्वयं, न वेद्धि विद्या सुचतुर्दश स्वयं ।। . : . . अर्थ-महारांना नलं अघीति; ज्ञान, आचार, प्रचार से विद्याओंमें, ४ पर्नेको करते .तथा उन्होंने स्वयं. १४ विद्याओंको प्राप्त कर लिया। मैं नहीं जानता कि राजा नलने १४ विद्याभोंको कैसे प्राप्त किया..... . ___ तथा कविवर हरिचन्द्रजी राजाकी विद्याका वर्णन करते हैं। ततः श्रुताम्भोनिधिपारदृष्वनो, शिंकमानेव पराभवं तदा । विशेषपाठाय विधृत्य पुस्तकं करान्न मुञ्चत्यधुनापि भारती (धर्म) - अर्थ-श्रुतप्तांगरके पारको प्राप्त ऐसे इस राजासे पराभव(हार)की आशंकासे ही मानों विशेष अध्ययन के लिये सरस्वती अपने हाथसे भान मी पुस्तकको नही छोड़ती है। विचारिये पाठक उभयकाव्योंकी उत्तमता । अब हम और भी इस विषयमें मिलान करते हैं। ___ हरिचन्द्र कवि राज्ञीके वर्णनमें कहते हैं:--- कृतौ न चेत्तेन विरंचिना सुधानिधानकुम्भौ सुदृशः पयोधरौं । " तदङ्गालग्नोऽपि तदा निगद्यतां स्मर परासु कधमाशु जीवितः ।। ___ अर्थ-उस सुव्रताके दो स्तन यदि वृह्माने अमृतके कोष नहीं बनाये । तो फिर कहिये उसके शरीर में लगा हुआ मृत कामदेव किस तरह जीवित हो गया। तथा "हर्ष कवि कहते हैं: अपि तषि प्रसपतोमितै कान्तिझरैरंगाधिता। स्मरयौवनयो खलु इयोः प्लपकुम्भौ भवतः कुचावभौ ॥ अर्थ-क्रांतिरूपी झरनासे . अंगापित दमयन्तीके शरीरमें विद्यमान कामदेव यौवनके लिये उसके कुचयुग तैरनेके लिये दो घडोके समान होते भये । ..... कपोलहेतोः खलु लोलचक्षुषो विधियधात्पूर्णसुधाकर द्विधाः। . विलोक्यतामस्य तथा हि लाञ्छनच्छलेन पश्चात्कृतसीवनवण.॥ : अर्थ-संचल हैं चक्षु जिसके ऐसी राज्ञीमें ऐसे कपोलोंके कारणसे ब्रह्माने चन्द्रमाकी . द्विषा विभक्त कर दिया । अतएव कलंक छलसे सिलाईका निशान दीख पड़ता है। . तथा हर्षकवि कहते हैं....तसारविन्दुमंडलं, दमयन्ती वंदनाय वेधसा । कृतमध्यविलविलोक्यते, 'धृतगम्भीरावनीखलीलिम् ॥ अर्थ-ब्रह्माने निश्चय करके दमयन्तीके मुखके बनाने के लिये चन्द्रमाका सब ...""
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy