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________________ (७१) मैं कहता हूं कि सातवां आठवां द्रव्य सिद्ध कीजिये । 'अस्तु | अधिक कहने से क्या ? लोककी सिद्धिके हेतु छह ही द्रव्योंकी आवश्यक्ता: है और वे स्वयम् सिद्ध हैं । • बहुत लोग रुपये पैसेको द्रव्य कहते हैं । जब मैं विद्यार्थी था तब मैंने द्रव्य * " संग्रह ग्रंथ इस लिये मंगाया था कि उसमें रुपये कमाने की युक्तियां होंगी । लोग रुपया पैसा स्वरूप द्रव्यकी उपासना किया करते हैं सो वह भी द्रव्य ही है पर पुद्गल द्रव्य : है उसमें जानंदका लेश भी नहीं । सदा अपने आत्म द्रव्यका आनंद लेना चाहिये | छहों द्रव्यों में आत्म द्रव्य सारभूत और उपादेय हैं। हे जीव ! तुम आत्मा हो, मात्मा तुम्हारा है, तुम आत्मा हौ । उसे तुम भले प्रकार जानौ, उसका श्रद्धान करौ और 'उसीमें स्थिर रहो | आत्मा ही तुम्हारा सर्वस्व है, उसी पर अर्थात् अपने 'स्व' के ऊपरराज्य करो यहीं स्व- राज है । ज्यों ही तुम स्वरूपसे चिगते हौ त्यों ही परराष्ट्र अर्थात कर्म दक तुम्हारे ऊपर कवजा कर लेता है या नौकरशाही रूप इंद्रियोंकी हुकूमत में तुम्हें रहना पड़ता है- जो तुम्हारे ज्ञान घनका शोषण करती और नाना नाच नचाती हैं . तथा तुमसे पूरी पूरी गुलामगारी कराती हैं । वे भांति की चटपटक और चकाचौंध भरी विदेशी बस्तुएं दिखाकर तुम्हें मुलायम और मोहित बना देती हैं और पराधीनताकी जंजीरसे कप्त देती हैं। फिर तुम इतने मोहताज हो जाते हो कि यदि विदेशी लोग तुम्हारे कपड़े सीने के लिये सुई भी न देवें तो तुम्हें फजीहत होना पड़े । इसलिये उनसे असहयोग करदों:- जो तुम्हारा असली रक्त चूसते हैं । तुम सच्चे स्वदेशी बनो एक क्षण● को भी अपने स्वदेश और देशबंधुओंका हित मत भूलो। दमन नीतिसे मत डरो पूर्वक सत्याग्रह ग्रहण करके स्वात्मबल बढ़ाओ । अंत में यह कहते हुए निबंध समाप्त करता हूं कि - सप मित्र पवित्र चरित्र घरौ, अरु शिक्षित पुत्र कलन करौ । पुनि कौशल काव्य- कला विधिसे, 'लजदो दल भारतको निधिले ॥ और : समाज सेवी बुद्धिलाल श्राव -लाडनूं (जोधपुर) •
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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