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________________ . ..... .. . .... . . ... धर्म जानते हुए भी संपूर्णतया न कह सके उन अनंत गुणात्मक द्रव्योंका कथन करनेक हेतु मैं तुच्छमति होकर भी लेखनी ग्रहण करता हूं यह देख विद्वान लोग मुझे पागल कहेंगे और वास्तवमें ही मेरा प्रयत्न उस दालकके समान है. जो दोनों हाथ फैला कर समुद्रका माप बतलाता है कि इतना बड़ा है । पर हां ! जो कुछ कहूंगा सो गुरूगम और अनुभवसे कहूंगा । कहीं चूकू तो छल नहीं समझना और न गुरूका दोषे समझना । (१) एक कटोरेमें दही रखिये। उसे नेत्र इन्द्रियसे देखिये तो उसमें रंग है, नाकसे सुधिये तो उसमें गंध प्रतीत होती है, जीभसे चलिये तो उसमें स्वाद जाना जाता हैं, दहीको हाथमें लीजिये तो उसमें चिकनाहट नरमता और वजनका बोध होता है : सारांश ! दही इन्द्रिय गोचर है । अब कुछ दही कटोरेमें ही रक्खो सौर कुछ दही कटो: रेमेंसे हाथमें लेओ तो मालूम हो जावेगा कि दहीके खड़ होसक्ते हैं । अब हाथमेंका दही कटोरेमें ही छोड़ देओ तो वह फिर मिल जावेगा । इससे यह भी प्रतीत होता है कि दहीमें इन्द्रिय गोचरताके सिवाय मिलने विठुरनेका गुण है इसलिये । पुरयति गले. यंति पुद्गलाः" की नीतिसे दहीको पुदगल कहना चाहिये । दह के समान अन्य वस्तुएं भी जो इंद्रिय गोचर हैं वे सब पुदगल हैं जैसे छड़ी, घड़ी, धोती टोपी, कागज * कलम, ताला, तलवार, टंका, पैसा आदि । . पुदगलोंके ये रूप, रस, गंध, स्पर्श, गुण सदा स्थिर नहीं रहते, सदा बदलते रहते हैं। अर्थात् वर्णसे वर्णान्तर, रससे रतान्तर, गंधसे गंधान्तर और स्पर्शसे स्पर्शान्तर हुआ करते हैं । जैसे जिस आम्रके फलको हमने कल हरा देखा था वह आज.मिष्ठं पीला दिखता है और थोड़े कालके बाद लाल दिखने लगता है । जिस फलको हगने कल सट्टा देखा थ वह आन मिष्ट देखने हैं और थोडी देरमें विरस हो जाता है । इन गुणोंके गुणशिःभी सद बदलते रहते हैं जैसे जिस ककडीको हमने कल बहुत हरी देखा था: आज इसमें कर हरियाली देखते हैं और कुछ कालमें वह पीली दिखने लगती है। ये गुणांश ऋभी कम इतने हीन प्रगट रहते हैं कि इन्द्रिय गोचर भी नहीं होते जैसे कि अग्निकी गंध, वायुक . रंग इत्यादि । परन्तु यह :पष्ट है कि वर्ण ५ रस ५.गध र स्पर्श इन २० मेसे जह .१ भी धर्म पाया नावे उसे पुदगल जानो ! पुदगलोंकी हालतें सदा बदलती रहती है . . जैसे पानीसे भाप, कुहरा, ओस बादल होते रहते हैं । अथवा अन्न, पानी, हवासे शरी हड्डी चमडा खून मांस, वीर्य आदि हुआ करते हैं। जब वे पुदगल आपसमें टकरा हैं तो दायु मंडलकी हमाको धक्का लगता है, फिर वह हवा एक दूसरे वायु कणोंको धक्क देती है यहां तक कि कानकी झिल्लि तक धक्का पहुंचता है और आवाज सुनाई देती है. इस चित्रमें देखो एक लकड़ीमें सूतसे बंधी हुई गोलियां लटक रहे
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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