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________________ : अब अजीव द्रव्य शेष रहा जिसका व्याख्यान आवश्यक तथा अनिवार्य है.। मस्तु । जीव द्रम्पको छोड़कर शेष नो मी नव्य हैं वे सपी अनीव द्रय हैं क्योंकि उन समीमें चेतनराहित्य अथवा, अनीवम माव विद्यमान है । अतएव सामान्यतया उन सभीको में एक जातिका कह दिया जाय तो मी अनुचित न होगा। किन्तु उनको विशेष विशेष,.. अनिवार्य भेदोंके कारण विभक्त करना ही चाहिये । अर अपना मानसिक वल इसी पर लगाते हैं कि अनीव द्रव्य. कितने प्रकारों में विमत है अथवा हो सका है। . . . तब सबसे प्रथम नीव दग्यको छोड़ देनेपर जितना मो कुछ दिखलाई देता है वह मी पद्दल द्रव्य, ही दृष्टिगोचर होता है जिसको कि मूर्तिक द्रव्य भी कहते हैं। संसारमें धर्मचक्षुओंसे तथा इतर द्रव्येन्द्रिय ज्ञानेन्द्रियोंसे जो कुछ उपलब्ध होता है समी पहल द्रव्य है । यहांतक कि यदि सूक्ष्म विचार न किया जाय तो दल द्रव्यको छोड़कर नीव द्रव्य मी सिद्ध नहीं होता है । अस्तु । . पृथ्वी, पर्वत, समुद्र आदि जितने मी पदार्थ हैं समी पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है। यहां तक कि जीवद्रव्य जिस घर में निवास करता है वह शरीर मी पुनलमय है । इसलिये इस पदले द्रव्यको सिद्ध करनेका परिश्रम नहीं करना पड़ेगा क्योंकि नमान्य पुरुष भी अपने ज्ञाननेत्रोंसे अथवा अन्य इन्द्रियोंसे सहन में ही इस दन्यसे पूर्ण परिचय हो जाता है । हाँ! एक बात अवश्य कहना है जो कि प्रायः असष्ट तथा विवादास्पद है। “वह यह है कि जिस प्रकार पद्मे रूप गुण है और वह पूर्णतया नष्ट है उसी प्रकार उसके अविनाम वो या साप साध रहनेवाले तीन गुण और मी हैं । निनका ज्ञान नेत्रे न्द्रय के सिवाय अन्य इद्रियोंसे होता है। वे गुण रस, गंध तथा स्पर्श हैं जो कि प्रत्येक प्रदान पदार्थमें अवश्य विद्यमान हैं। .... इसलिये पुद्गल द्रव्यमा यह रक्षण वनगया कि, "जिप्समें रूप, रस, गंध तथा मर्श ये चार गुण पाये जाय वह पृद्दल है" । इन चारों गुणों से किसी :पदार्थमें चारों गुण ही व्यक्त हैं और कुछ पदार्थों में कोई गुण . ही व्यक्त है शेष अव्यक्त रूपसे रहते हैं। किन्तु यह नियम है कि जहां इन चारों से कोई एक गुण होगा वहींपर शेषके तीन गुंग भी अवश्य मिलेंगे। यह नियम हमको उन अनेक प्रकारके नाना पदार्थों के अनुमवसें ज्ञात. हो जाता है। जैसे आपको खानेसे उसका मीठा रस -मालुप हुआ, सूंघनेपर सुगंध मी उपलब्ध हुई । कोमल, ठंडा, मारी, चिकण, स्पर्श भी पाया गया। इसी प्रकार. गुलाबके इनमें जैसे सुगंधि उपलब्ध होती है उसका रंग तथा स्पर्श मी उसी प्रकार मिलता है और स्वाद लेनेपर उसमें किसी न किसी प्रकारका रस मी: पालम होता है। हमको ना कि
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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