SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३८) यह . कहना मी अविचारीतरम्य .ही . है क्योंकि आकाश नब नित्य है तो ध्रौव्यता तो उसमें सदा बनी ही रहेगी । उत्पाद व्यय अगुरुग्घुगुणकी अपेक्षासे हो जायगे। द्रों में उत्पाद व्यय दो प्रकारसे होते हैं। एक स्त्र प्रत्यय और दूसरे पर प्रत्यय। मनन्त अगुरु लंबु गुणों के द्वारा पट स्थान पतित वृद्धि हानिसे पूर्व अवस्थाके अमाव होना. नेको स्वद्रव्य व्यय कहते हैं और पहिलेकी तरह मागेकी पर्यायका माविर्भाव होनेपर सस प्रत्यय व्यय कहते हैं पर प्रत्यय उत्पाद व्यय तो सुलम ही हैं। यानी शाकाश बहुतसी. 'आकाश रूर परिणत बहुतसे जीवादिकोंको अवकाश देता है जब कि द्रव्य जिनका कि आकाशमें अवगाह होता है अनेक रूप हैं तो बाकाश मी अपनी प्रथक र शक्तियों द्वारा उन भनेक रूपनीवादिकोंको अवकाश देता है अतः अनेक रूपता आकाशको सिद्ध ही हैं। कोई २" शब्द गुणकमीकाशं " यानी शब्द है गुण जिप्तका ऐसा आताश है, ये आकाशका लक्षण मा-ते हैं। नैयायिक लोग शब्दको गुण मानते हैं। अपने । चोवीस (२४) गुणों की संख्याके उन्नर शब्द नामक एक गुण है जिपका कि लक्षण "श्रोत्र अाह्यों गुणः " "श्रोत्र ग्राह्यत्वेन गुणवत्वं शब्दस्य लक्षण" श्रोत्र ग्राह्यत्व विशेषण • देते तो रूपरसादि गुण हैं अतः यहां अलक्ष्य, शब्दका लाग जानेले अति व्याप्त दोष होता । और यदि मोच ग्राह्यन्त्र मात्र कहते तो शब्दत्व मी श्रोत्रं प्राय है किन्तु गुण न होनेसे शब्द नहीं कहा जासकता । इस ताह शब्दका लक्षण मानकर नैयायिक शब्दगुणवाला आकाश है ऐसा कहते. हैं किन्तु शब्द पौगलिक है यह हम पहिले सिद्ध कर आये हैं। - अतः जब कि शब्दको पदलता है तो उसे गुण नहीं कह सकते । यदि द्रव्य मी गुग कहेंगे तो द्रव्य गुणमें संकर हो जायगा । इस लिए शब्द गुणवाला आकाश नहीं होतक्ता अतः नैनियोंका माना हुमा आकाशका लक्षण स्वीकार करना चाहिये सर्वत्र निर्विषाद होनेसे। · सारांश-वाच्यसे वाचककी सिद्धि होती है अतः आकाश वाच्यते आकाश वाचक ' की सिद्धि हो ही जायगी और उपयोगीता उसकी. अवगाह दानसे सिद्ध होती है। यदि भाकांश माना जाय तो समी दयोको निराश्रयताका प्रसङ्ग हो जायगा अतः आकाशको मानना ही चाहिये। . . अब कालकी सिद्धि और आवश्यक्ता बतलाते हैं। , ‘काल व्यका स्वरूप पूर्णचार्योने यह दिखाया है कि जो सन द्रव्योंक वर्तनामें उदासीन कारण हो उसे काल द्रव्य कहते हैं। जैसे धर्म और अधर्म द्रव्य पदलों और नीयोंकी • गति स्थितिमें बलात्प्रयोनक नहीं हैं उसी तरह काल- मी बलात्कारसे किसी द्रव्यमें वर्तना
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy