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________________ . .. सिद्ध ही है, कि ज्ञान अपने प्रकाशनके लिए अपने से भिन्न कारणान्तरों की अपेक्षासे रहित है । प्रत्यक्ष अर्थका गुण होते हुए अदृष्टका अनुयायिकरण होनेसे प्रदीपके समान जैसे दीप अपने भापको तथा दूसरे पदार्थोको प्रकाशित करता है। . . दूसरे यदि ज्ञानको दूसरे ज्ञानसे वेद्य-मानोगे तो दूसरा ज्ञान तीसरे ज्ञानसे वेध मान. ना पड़ेगा । ज्ञान होने से इसी प्रकार तृतीयादि ज्ञान :अय अन्य ज्ञानोंके जानने में ही लगे ___ रहेंगे तो प्रचत पदार्थके जाननेसे वञ्चित ही रह जायंगे । - तृतीय दोष यह है कि परोक्षज्ञानके द्वारा पदार्थों का प्रकाशन भी नहीं हो सकता। यदि परोक्षज्ञानके द्वारा मी पदार्थों का प्रकाशन हुभा करे तो दूसरे व्यक्तिका ज्ञान मी हमारे लिए परोक्ष है अतः उस ज्ञानसे मी पदार्थोश ज्ञान होना चाहिये । अपने परोक्ष ज्ञानसे पदार्थोंका प्रकाशन होता क्योंकि वह ज्ञान समजाय सम्बन्धसे '. अपनी आत्मामें रहता है और दुसरेके परोक्ष ज्ञानसे पदार्थ प्रकाशन नहीं, होसकता है. क्योंकि वह ज्ञान अपनी आत्मामें नहीं रहता। यदि ऐमा कहेंगे तो यह आपका कहना मी विचारशून्य है क्योंकि आर ज्ञानको आत्मासे सर्वथा मिन्न मानते हैं। ____चार्वाक, तो उक्त कथन कदापि कर ही नहीं सकता क्योंकि वे आत्मा समवाय: मादि कुछ नहीं मानते हैं सिवाय पृथ्वी आदि । भूतोंको । ' उक्त सर्व कथनका सार यह है ज्ञान स्वसंवेदन मानना चाहिये और उस स्वस· वेदन ज्ञानसे नीवकी सिद्धि हो ही जाएगी। - और मी देखा जाता है कि उसी समयको उत्पन्न बालक विना किसीके उपदेशः से अपनी माताके स्तनसे दूध पी निकलता है । बाल के दूध पीने की अभिलाषा विता प्रत्यभिज्ञानके हो नहीं सकती और प्रत्यमिज्ञान विना स्मरणके नहीं होता, अतः पूर्वानुभव अवश्य ही मानना चाहिये। कोई२ भूत आदि हो जाते वे किसी न किसी आदमीके. • ऊपर आकर अवश्य होते हैं कि मैं पहिले वह था " अब वहां ई आदि तपा: कोई कोई बच्चा वृद्ध युवा पुरुष मी अपने पूर्व मश्की सब बातें बता दिया करता है। यदि ४ भूतसे. जीव बने होते तो शरीरके नष्ट होनेके साथ साथ ही नीव भी नष्ट हो जाता लेकिन दूसरे भद तक उसका सम्बन्ध जाता है तो ज्ञात होता है कि चार भूनसे जीव नहीं बना है। उक्तञ्च-.. तदहजनेस्तनेहातो रक्षोदृष्टेः भवस्मृतेः ।... ... भूतानन्वयानसिडः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥ उसी दिनके उत्पन्न हुएबालकको स्तनमें स्वतःइच्छा होनेसे, राक्षक्ष रूप में किसीको देखनेसे, पूर्व भवको स्मृति होनेसे और पञ्चभूतों का अन्वयपन होने के कारण श्रीव अनादिसिद्ध मानना ही चाहिये।
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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