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________________ (१३) साधारण व्यावर जानने वाला जान सकता है । जैसे संमूर्च्छच्छ्रशंख निश्वनः स्वनुप्रयातेपरंहस्य शार्ङ्गिणि । सत्यानि निन्ये नितरां महात्त्यपि व्यथां दयेषामपिमेदिनीभृताम्|| ( शिशुपाल्चत्र ) - इस ain "ant" यह शब्द निर्लक्षण दोपसे दूषित है, इयेषाम् की द्वयानाम् होना चाहिये गर्योकि व्याकरण (लक्षण) शास्त्र में द्वयेषां न बनकर नाम रूप बनता है । *तः दुपान सुरक्षा है, और दयेषां निर्लक्षण है, और भी समझना चाहिये। जैसेतन मन तो घनास्यागमसंमदः मुदा" अर्थात् श्रीकृष्ण परमात्मा के हृदय में नारद ऋपिके आने की खुशी (हर्ष) समाई नहीं। जिनसेनाचार्य वसुन्धरा महादेवी पुत्र कल्याणसम्पदा । प्रमोद पूर्णाङ्गीन स्वांगे नन्वमात्तदा || अर्थात - वसुन्धरादेवी अपने पुत्र कपाणकी सम्पत्ति से उत्पन्न हुए आनन्दसे फूची नहीं समाई। यह बल्पना आचार्यनीकी है, इससे सिद्ध है जैन काव्योंमें ही महत्व है। इसके अनन्तर अलंकार और वधकी विशेषता बताते हैं यह चित्रहार है, इसका लक्षण, नत किपायें, द्वितिश्वादमें यमक, अताक बन अतीवर हो तथा सर्वतः पाठ समान हो। जैसे क- पारावाररवारापारा क्षमाक्षक्षमाक्षरा । : वामानासमनामावारक्ष ममक्षर || अर्थात है जिननाथ, समुद्रनिश वगीश ! हे सर्वज्ञ ! हे पापनाशक ! हे ! तुम्हारी मार है, अतः मुझको प्रपन्न करो, शोभित करो, रक्षा करो। यह लोक राय और शांत रससे मशहूगा है। श्री nisar सर्वतोप इस प्रकार है वि + 'सकारनानासारकास, कायसाददसायका 1 रवाहसार, नादवाददवादना || समूह इसका भी चित्र बनाया जा सकता है। इसका अर्थ है कि सोत्साह नाना प्रकार से | शरी तथा गति और वाणोंके शन्दसे और वाह श्रेष्ठोंके नाद से बाकी नि हो रही है। इसमें कविने की विशेषता बतलाई है। परंच इसमें इतनी त्रुटि है कि इसमें कोंकी विशेषता है। रस मी साधारण है। . पुज्यवार जिनसेनाचार्य ने भले हारचिन्राणणिमें बहुत ही अच्छी तरह स्तशये जैसे, देखिये - ..
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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