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________________ है, परन्तु दिनकर शब्दसे सूर्य प. भयं द्योतक होता है, चन्द्रमा नहीं, सो यहाँपर चन्द्रमा यह अर्थ लगाया है, और इस मर्यके लिये बड़ी खींचतान की है; अच्छा मान मी लिया नाय किसी तरह यह अर्थ तो यहां प्रसिद्ध नामका दोष आता है, जो कायके सारे महत्वको घटा देता है। खैर, इसे विद्वान् संकेतमात्र ही समझकर श्री.बाणविकी विद्वत्ताकी इयताका परिचय जान लेंगे। क्योंकि विद्वानोंको संकेतमात्र काफी होता है। यह मेरा ही मत नहीं है बल्कि इस विषयमें अच्छे २ मनुष्योंने हस्तक्षे किया है। जैसे प्रोफेसर '. वैवर घाणकविकी गधपर अपने विचार प्रकट करते हैं कि " Baba's' proge is an Indian Food when áll progress is revder. ed impossible by the under-growth, until the traveller cuts out a path for himself and where even then he has to. iedkon : witli malicious wild beasts in the shape of nokron'n mords afrighit hini,". अर्थात जैसे हिन्दुस्तान के नंगन में उन सवनवृक्षों के बीचमें पैदा हुई छोटी २ झाड़ियों के मारे रास्तागीरं गमन करने में असाध्य हो जाता है और किसी तरह मार्ग निराळ मी देता है तो दुष्ट भयंकर जन्तुओंसे पिंड छुड़ाना पड़ता है, उसी तरह बाणविक गधमें अपसिद्ध शब्दोंके मारे कथोपयोगी माग समझना मुश्किल पहनाता है, और यदि वह मेहनतसे अर्ष निकाल मी लेता है तो मप्रसिद्ध और कठिन शब्दकि समझनेके लिये प्रथक कष्ट उठाना पड़ता है । वास्तवमें यह नात अक्षरशः सत्य है । . अ श्री कालिदास कविक विषयमें इतना कहना ठीक होगा कि इनका समय सर्व सम्मत (६३.४ ) है। इनके जीवनचरित्रसे आधारवृद्ध परिचित ही हैं। यहांतक कि लाग्दिासको कविकलर कहते ही हैं, कोई १ तो ऐसा कहते हैं कि यदि कालिदास केवळ "मेघदुत नामक काइप एनीते तो मी इनका यश संसारमें चिरस्थायी रहता, लेकिन इन्होंने, अस्ति कचित पाविशेषः' इस वाक्यपरं ३ काव्य बनाडाले, मो आजको नात ही प्रसिद्ध हैं। जिनके नाम, रघुवंश, मेघदूत, कुमारसम्भव हैं । लेकिन नहीं कह सकते कि इन्होंने मी. . वैताही.काट लाट किया हो, किन्तु इसं वातसे अवश्य प्रतीत होता है कि सम्मवतया जहाँ तहां किया हो, क्योंकि राना मोनारानके स्वर्गारोहणकी बात सुनकर दुःखित कालिदासनीने ये कहा था कि...... अद्यधारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती । पण्डिता खण्डिता सर्वे भोजराज दिवं गते । अर्याह रामा मोजके स्वर्ग जानेपर, पृथ्वी निराधार, सरस्वती मालम्पनरहित, पण्डित खण्रित, ये सब बातें एक साथ होगई। ' '... ..
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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