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________________ ( १७४ ) का कारण होताहै इसलिये तुम्हारे कहने संदेह नहीं परन्तु मेरी तो सब भाइयों से प्रार्थनाहै कि न तो पूर्वोक्त पुस्तकें छापो औं छपाओ क्योंकि जैनकी निंदा करनेको तो मतावलवीही बहुतहैं फिर तुम जैनी ही परस निन्दा क्यों करते करातेहो शोक है आपसव फूटपर क्या तुम नहीं जानते कि यह जैनधर क्षांति दान्ति शान्ति स्ए अत्युत्तम है, अनेक - जन्मोंके पुण्योदयसे हमको मिला है तो इससे कुछ तप संयमकालाभउठायें औरझूठ कपटको = छोडें यद्यपि कलियगमें सत्यकी हानी,तथापि इतना तो चाहिये कि पक्षका हठ और कपट की खटाईको घटमेंसेहटाकर विधि पूर्वक धर्म प्रीतिसे परस्परमिलके शास्त्रार्थ किया करें धर्म समाधिका लाभ उठाया करें मनुष्य जन्मका -
SR No.010483
Book TitleSatyartha Chandrodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherLalameharchandra Lakshmandas Shravak
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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