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________________ ( १३८ ) देकर परमार्थ को प्रकट करना तृतीय निर्विशेष अर्थात् भेदानुभेद खोल के सूत्र के साथ अर्थ को मिला देना अर्थात् सूत्रसेअर्थका अविशेष (फरक) नरहे कि सूत्रों में तो कुछ और भाव है और अर्थ कुछ और किया गया है, एता. दृश विधि से होता है अनुयोग अर्थात् ज्ञानका आगमन(मतलब का हासल) होना अब आंख खोल के देखो कि सूत्रानुसार यह इसप्रकार नियुक्ति मानने का अर्थ सिद्ध है कि तुम्हारे मदोनमत्तों की तरहमिथ्या डिंभ के सिद्ध करने के लिये उलटे कल्पित अर्थ रूप गोले गरडाने का, यथा कोई उत्तराध्ययन जी सत्र वाचने लगे तो प्रथम सूत्रार्थ कह लिया द्वितीय जो नियुक्तियें नाम से बड़े२पोथे वना रक्खेहैं,उन्हें धर केवांचे तीसरे जो निरविशेष अर्थात् टीका
SR No.010483
Book TitleSatyartha Chandrodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherLalameharchandra Lakshmandas Shravak
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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