SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७६ ) रंतु जिसको मूर्ति पूजक मुक्ति का साधन क. हते हैं, उस मंदिर मूर्ति का विस्तार एक भी प्रमाणीक मूलसूत्र में नहीं लिखा यदि तर्क करें कि रायप्रश्नीजी जीवाभिगमजी में जिन मंदिर का भी अधिकार है उत्तर यह तो हम पहिले ही लिख चुके हैं कि देवलोकादिकों में अकृत्रिम अर्थात् शाश्वती जिनमंदिरमूर्ति देवों के अधिकार में चली हैं परन्तु किसी देश नगर पुरपाटनमें कृत्रिम अर्थात् पूर्वक्ति श्रावकों के बनवाये हुयेभी किसी प्रमाणीकसूत्रमें चले हैं अपितु नहीं ताते सिद्ध हुआ कि जैनशास्त्रों में साधु श्रावकको मंदिर का पूजना नहीं चला है, अब जोपाषाणोपासकचेइयशब्दको ग्रहण करके मंदिर मूर्ति का पूजना ठहराते हैं अर्थात् अर्थ का अनर्थ करते हैं इसका संवाद सुनो।
SR No.010483
Book TitleSatyartha Chandrodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherLalameharchandra Lakshmandas Shravak
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy