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________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ५५ ६ जैनेन्द्र मे "सैन्धौ " || ४ | ३ |६० || को अधिकार सूत्र कह कर चतुर्थ अध्याय के तृतीय और चतुर्थ पाद तथा पंचम अध्याय के कुछ सूत्रो मे सन्धि का निरूपण किया गया है । अधिकार सूत्र के बाद छकार के रहने पर सन्धि मे तुगागम का विधान किया गया है । तुगागम करने वाले चार सूत्र दिये गये हैं । इन सूत्रो द्वारा ह्रस्व, आड्, माड् तथा सज्ञको से परे प्रयोगों का साधुत्व प्रदर्शित किया गया है । यह प्रक्रिया पाणिनि के समान है, किन्तु इसमे अधिक सूत्रो की आवश्यकता उपस्थित नही होती । सज्ञाओ की मौलिकता के कारण ही यह सम्भव हुआ है । ७ जैनेन्द्र पंचाग व्याकरण है । इसमे धातुपाठ, गणपाठ, उणादिसूत्र तथा लिंगानुशासन के प्रयोग पूर्णतया उपलब्ध होते है । जैनेन्द्रव्याकरण के सम्बन्ध में इस प्रकार के मन्तव्य सर्वथा निराधार हैं तथा जैनेन्द्र व्याकरण विषयक इतिहास और अध्ययन की अज्ञता के द्योतक है कि પિછલે ન્દી વિાવર ખૈન વિદ્વાનો ને પાણિનીય અષ્ટાધ્યાયી સૂત્રો જો અસ્તવ્યસ્ત कर यह कृत्रिम व्याकरण बना कर देवनन्दि के नाम पर चढा दिया है ।"" इतिहास ग्रन्थो मे इस प्रकार के मन्तव्यो को उद्धृत करना गैरजिम्मेदाराना ही कहा जाएगा। स्वोपज्ञ जैनेन्द्रन्यास पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र पर स्वोपज्ञ न्यास की रचना की। इसके उल्लेख प्राप्त होते है । शिमोगा जिले मे प्राप्त एक शिलालेख मे पूज्यपाद द्वारा रचित स्वोपज्ञन्यास तथा पाणिनीय व्याकरण पर लिखे शब्दावतारन्यास का निम्नलिखित रूप मे उल्लेख प्राप्त होता है न्यास जैनेन्द्रसज्ञ सकलबुधनत पाणिनीयस्य भूयो, न्यास शब्दावतार मनुजततिहित वैद्यशास्त्र च कृत्वा । इन दोनो न्यासो मे से वर्तमान मे कोई भी न्यास उपलब्ध नही है | अभयनन्दीकृत जैनेन्द्रमहावृत्ति નૈનેન્દ્ર જ વપત્તબ્ધ સમી ટીાબો મે મયનન્વીદ્યુત મહાવૃત્તિ સર્વાધિળ प्राचीन है । अमयनन्दी दिगम्वर परम्परा के मान्य आचार्य थे । इनका समय विक्रम की ८-हवी शताब्दी माना जाता है । डा० बेल्वलकर ने इनका समय सन् ७५० बताया है । " जैनेन्द्र के एक अन्य टीकाकार श्रुतकीर्ति ने अभयनन्दी की इस महावृत्ति को जैनेन्द्रायव्करण रूप महल के किवार्ड की उपमा दी है । पच-वस्तु के अन्तिम दो पद्यो मे कहा गया कि जैनेन्द्रव्याकरणरूपी महल सूत्र रूपी स्तम्भो पर खड़ा किया गया है। न्यास रूपी उसकी भारी रत्नमय भूमि है । वृत्ति रूप उसके कपाट है,
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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