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________________ ५० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा का सुझाव था कि घु का शुद्ध पाठ द्यु होना चाहिए। वह वात जैनेन्द्र के सूत्र १।३।१०५ 'उत्तरपद धु' से निश्चयेन प्रमाणित हो जाती है । और अब भाष्य मे भी द्यु ही शुद्ध पा० मान लेना चाहिए। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि पाणिनि के 'पूर्वनासिद्धम्' (८।२।१)सून और उससे सम्वन्धित असिद्ध प्रकरण को भी जो पाणिनि के शास्त्र निर्माण कोशल का अद्भुत नमूना है, जनेन्द्र व्याकरण मे 'पूर्वनासिद्धम्' सूत्र (५।३।२७) मे स्वीकार किया है । तदनुसार जनेन्द्र के साढे चार अध्यायो के प्रति अन्त के लगभग दो पाद असिद्ध शास्त्र के अन्तर्गत आते है। देवनन्दी ने अपनी पचाध्यायी मे पाणिनीय अण्टाध्यायी के सूत्रक्रम मे कम से कम फेरफार करके उसे जैसे का तसा रहने दिया है। केवल सूत्रो के शब्दो मे जहाँ-तहाँ परिवर्तन करके सन्तोष कर लिया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वाति के तत्वार्य सून पर सवार्थसिद्धि नामक टीका का निर्माण किया था जो जानपी० से प्रकाशित हो चुकी है । उस ग्रन्थ मे उन्होने कई स्थलो पर व्याकरण के सूत्रो का उद्धरण दिया है। उनमे विना पक्षपात के जनेन्द्र सूनो को भी और पाणिनीय सूत्रो को भी उद्धृत किया गया है। उदाहरण के लिए अध्याय ४ सून १६ की सर्वार्थसिद्धि टीका मे दो सूत्रों का उल्लेख है तदस्मिन्नस्तीति' और 'तस्य निवास'। इनमें पहले के विषय मे यह कहना कठिन है कि वह किस व्याकरण से लिया गया है, किन्तु दूस। पाणिनीय व्याकरण का ही है (४।२।६६) क्योकि उसका जनेन्द्रगत पा० 'तस्य निवासादू रभवो' रूप मे मिलता है (सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना पृ०० ५०)। पूज्यपाद ने न केवल नवीन व्याकरण सूत्रो की रचना की, वरन् उन पर जनेन्द्रन्यास भी बनाया था। उन्होंने पाणिनीय सूत्रो पर शब्दावतार न्यास भी लिखा था किन्तु अभी तक ये दोनो ग्रन्थ उपलब्ध नही हुए है। इसमे सन्देह नही कि आचार्य पूज्यपाद पाणिनीय व्याकरण, कात्यायन के वातिक और पतजलि के भाष्य के पूर्ण मर्मज्ञ थे, एव जैनधर्म और दर्शन पर भी उनका असामान्य अधिकार था। वे गुप्तयुग के प्रतिभाशाली महान् साहित्कार थे जिनकी तत्कालीन प्रभाव कोकण के नरेशो पर था, किन्तु कालान्तर मे जो सारे देश की विभूति बन गये। डॉ० अग्रवाल ने जनेन्द्र के उपर्युक्त विश्लेपण मे जो बात कही हैं उन्हे विद्वान् शत प्रतिशत रूप मे ज्यो को त्यो स्वीकार कर ले, यह आवश्यक नहीं है। वे अपनी व्याख्या अलग दे सकते है। इस प्रकार के अध्ययन के लिए यह आकाशदीप है, इसमे दो राय नही हो सकती। जन व्याकरण शास्त्र के अध्ययन की जिस तीसरी दृष्टि का हमने ऊपर जिक्र किया है, उसे किन्ही अर्यों में पारस्परिक तरीके से देखने-सोचने की वात
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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