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________________ ४८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा या तो ये अर्थ अभयनन्दी के समय मे लोकप्रचलित थे या उनकी कल्पना है। महावृत्ति मे 'अपडक्षीण' का एक अर्थ मछली भी किया है ५९ उसमे खीचतान ही जान पड़ती है। सूत्र ३।४।१३४ मे 'अयानयीन' शब्द के अर्थ का भी महावृत्ति मे विस्तार है। ___महावृत्ति सून २।२।९२ मे इतिहास की विशे५ महत्वपूर्ण सामग्री सुरक्षित रह गयी है। उसमे ये दो उदाहरण आए है। 'अरुणमहेन्द्रो मयुराम् । अरुणद् यवन साकेतम् । व्याकरण की दृष्टि से यह आवश्यक था कि कोई ऐसा उदाहरण लिया जाता जो लोकप्रसिद्ध पटना का सूचक हो, जो कहने वाले के पक्ष मे घटित हुआ हो किन्तु जिसको देख सकना उसके लिए सम्भव हो अर्थात् उसके जीवन काल की ही कोई प्रसिद्ध घटना हो, पर जिसे सम्भव होने पर भी उसने स्वयं देखा न हो। भाष्यकार पतजलि ने इसका उदाहरण देते हुए अपनी समसामयिक दो घटनाओ का उल्लेख किया था 'अरुणद् यवन साकेतम्, अरुणद् यवनो मध्यमिकाम् ।' इनमे शाकल के यवन राजाओ द्वारा किये हुए उन दो हमलो का उल्लेख है जिनमें से एक पूर्व की ओर साकेत पर और दूसरा पच्छिम मे मध्यमिका पर | मध्यमिका चित्तोड के पास का वह स्थान था जिसे इस समय नगरी कहते है और जहाँ खुदाई मे प्राप्त पुराने सिक्को पर मध्यमिका नाम लिखा हुआ मिला है। ये हमले किस राजा ने किये थे उसका नाम पतजलि ने नहीं दिया, किन्तु यूनानी इतिहासलेखको के वर्णन से ज्ञात होता है कि उस राजा का नाम मिनडर था जिसे पाली भाषा मे मिलिन्द कहा गया है। उसके सिक्को पर तत्कालीन वोलचाल की प्राकृत भाषा मे उसका नाम मनन्द्र मिलता है। महावृत्ति के 'अरु-महेन्द्रो मयुराम्' इस उदाहरण मे दो महत्वपूर्ण सूचनाए है । इसमे राजा का नाम महेन्द्र दिया हुआ है, पर हमारी समिति में इसका मूलपाठ 'मनन्द्र' था। पीछे के लेखको ने भेनन्द्र नाम को ठीक पहचान न समझ कर उसका सस्कृत रू५ महेन्द्र कर डाला। इस उदाहरण से सस्कृत साहित्य की भारतीय साक्षी प्राप्त हो जाती है कि पूर्व की ओर अभियान करने वाले यवनराज का नाम भेनन्द्र या मिन-डर था। यवनराज मेनन्द्र ने पाटलिपुत्र पर दात गडा कर पहले धक्के मे मयुरा पर अधिकार जमाया और फिर आगे 46 कर साकेत को छेक लिया । साकेत पहुंचने के लिए मयुरा का जीतना आवश्यक था। अब यह सूचना के रूप मे अभयनन्दी के उदाहरण से प्राप्त हो जाती है। इसमें यह भी पता लगता है कि काशिका के अतिरिक्त भी अभयनन्दी के सामने पाणिनि व्याकरण की ऐसी सामग्री थी जिससे उसे यह नया ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त हुआ। मूव ११३१३६ की वृत्ति मे आरण्यक पर्व १२६१८-१० का यह श्लोक पनि है उलूखलराभरण पिशाची यदभापत् । एतत्तु ते दिवा नृत्त रातो नृत्त तु द्रक्ष्यमि॥
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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