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________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ४१ जैन व्याकरण साहित्य के इतिहास मे जिनेन्द्र शाकटायन और हेम ऐसे ही निलय है। जिनेन्द्र अर्थात् आचार्य पूज्यपाद देवनदी, शाकटायन अर्थात् आचार्य પાલ્યીર્તિ શાતાયન તયા ફ્રેમ અર્થાત્ અનાર્ય હેમન્તત્ત્ત ન તીનો તે જૈન વ્યારબ के प्रवर्तन, प्रवर्धन और प्रसार मे संस्कृत व्याकरण शास्त्र के मुनित्रय के समान ही अनुपम कार्य किया । यद्यपि शाकटायन ने जैनेन्द्र पर तथा हेम ने जैनेन्द्र या शाकटायन पर कोई वृत्ति या महाभाष्य नहीं लिखा, फिर भी जैनेन्द्र की उपलब्धियो को शाकटायन ने सुरक्षित रखा और आगे बढाया तथा जैनेन्द्र और शाकटायन की નપત્તન્ધિયો જો ફ્રેમ ને બપને શાસ્ત્ર મેં સુરક્ષિત યિા ગૌર સે આને વઢાયા । इस मुनित्रयी के व्याकरणो का अध्ययन संस्कृत व्याकरणशास्त्र मे जैनाचार्यो के योगदान को स्पष्ट रूप से प्रतिविम्बित करता है । ऊपर हमने जिन तीन दृष्टियों से जैन व्याकरणशास्त्र के अनुशीलन की बात कही है, उनमे से प्रथम दो दृष्टियों से पाणिनि का अध्ययन डा० वासुदेवशरण अग्रवाल ने अपने 'पाणिनिकालीन भारतवर्ष' मे किया है । इस प्रकार के अध्ययन का यह कीर्तिमान है। जैन व्याकरण के इस प्रकार के अध्ययन की भूमिका डा० अग्रवाल ने जैनेन्द्रमहावृत्ति की भूमिका मे प्रस्तुत की है। पूज्यपाद देवनन्दी को समर्पित उनका वह नैवेद्य उन्ही के लिए अर्घ्यदान के रूप मे यहा प्रस्तुत है । डा० अग्रवाल ने संस्कृत व्याकरण शास्त्र के इतिहास की चर्चा से आरम्भ करते हुए लिखा है ' "भारतवर्ष मे व्याकरणशास्त्र का अध्ययन लगभग तीन सहस्र वर्ष से चला आ रहा है | भाषा के शुद्धज्ञान के लिए व्याकरण का महत्त्व सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ, अतएव व्याकरण को 'उत्तरा विद्या' अर्थात् अन्य विद्याओं की अपेक्षा श्रेष्ठ कोटि में माना गया । किसी भी भाषा के इतिहास मे धातु और प्रत्ययो की पहचान उस गौरवपूर्ण स्थिति की सूचक है जिसमे सूक्ष्म दृष्टि से भापा के आन्तरिक सगठन का विवेक कर लिया जाता है, और शब्दो की उत्पत्ति और निर्माण की जो प्राणवन्त प्रक्रिया है उसके रहस्य को आत्मसात् कर लिया जाता है । यो तो सभी मनुष्य अपनी-अपनी मातृभाषा मे बोलकर अपना अभिप्राय प्रकट कर लेते है, किन्तु व्याकरण की प्रक्रिया का जन्म उस राजपथ का निर्माण है जिस पर चलकर निर्भय से हम भाषा के विस्तृत साम्राज्य मे जहा चाहे वहा पहुच सकते हैं और शब्दो मे भावप्रकाशन की जो अपरिमित क्षमता है उसको भी प्राप्त कर सकते है | संस्कृत वैयाकरणो ने ससार मे सर्वप्रथम इस प्रकार का महनीय कार्य किया । शब्दो के विभिन्न रूपो के भीतर जो एक मूल सज्ञा या धातु निहित रहती है उसके स्वरूप का निश्चय और प्रत्यक्ष जोडकर उससे बनने वाले क्रिया और सज्ञा रूपी अनेक शब्दों की रचना एवं प्रत्ययो के अर्थों का निश्चय ભાવ इस प्रकार के विविध विचार
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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