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________________ ३८ . सकृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा विशि८ मामग्री को जोडकर उदाहरणो आदि के माध्यम से अपने व्याकरण ग्रन्थो मे सुरक्षित किया। इसका मूल्याकन अध्ययन का दूसरा पहलू है। ३ जैन आचार्य इस बात के लिए विशेष जागरूक थे कि जैन तीर्थकरी ने दार्शनिक चिन्तन में जिस एक विशेष दृष्टि को उद्भत किया था, उसका प्रयोग ज्ञान-विनान की विभिन्न शाखाओ मे किस प्रकार किया जाए । व्याकरण ग्रन्थो की रचना के समय भी जनाचार्य इस विषय मे पूर्ण रूप से सजग रहे । उनके द्वारा लिखे गये अन्यो का मूल्याकन करने का यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू है। जन वाड्मय मे व्याकरणशास्त्र की परम्परा जन आगमो में बारहवा अग दृष्टिवाद है । वर्तमान मे यह पूर्ण रूप मे उपलय नहीं है । दृष्टिवाद मे चौदह पूर्व शामिल थे । प्रत्येक पूर्व का वस्तु और वस्तु का अवान्तर विभाग 'प्राभृत' नाम से कहा जाता था। आवश्यक-पूणि, अनुयोगद्वारणि, मिसेनगणिकृत तत्वार्थभाष्यटीका और मलधारी हेमचन्द्र सूरिकृत अनुयोगदार मूत्रटीका मे 'दप्रामृत' का उल्लेख मिलता है। ___ भिमेनगणि ने कहा है कि पूर्वो मे जो शब्दप्रामृत है, उसमे से व्याकरण का उद्भव हुआ है। शब्दप्रामृत लुप्त हो गया है । वह किस भाषा मे था, यह निश्चित ६५ मे नहीं कहा जा सकता। ऐसा माना जाता है कि चौदह पूर्व सस्कृत भाषा मे थे । इसलिए शब्द प्राभृत' भी संस्कृत मे रहा होगा। ___ डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि सत्यप्रवाद पूर्व मे व्याकरणशास्त्र के गभी प्रमुख नियम माये है। इसमे वचन संस्कार के कारण, शब्दोच्चारण के स्थान, प्रयत्न, वचन-प्रयोग, वचन-भेद आदि का निस्पण है । वचन संस्कार का विवेचन करत हु। इसके दो कारण बताये गये हैं रयान और प्रयत्न । शब्दोपारण के आठ न्यान बताये गये है - हृदय, कठ, मस्तक, जिह्वामूल, दन्त, तालु, नासिका और औ- । शब्दोच्चारण के प्रयत्नों का विवेचन करते हुए स्पृष्टता, ईपत् स्पृष्टता, विवृनता, पद्विवृतता और मवृतता इन पाच की परिमापाए दी गयी है । वचन cि और दुपट प्रयोगो के विश्लेषण में शब्दो के साधुत्व और असाधुत्व का मी प्रयल किया गया है। इस प्रकार 'मत्यप्रवादपूर्व' मे व्याकरणशास्त्र की एक स्पष्ट • १२॥ दृष्टिगोचर होती है। जैन अनुभूति के अनुसार पूर्व अन्य भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के थे। भगवान महावीर के उपदेशो का जयनग्रह किया गया तो पूर्व ग्रन्यो को बारहवें विवाद ना.५५ जग में शामिन के लिया गया। जैनथानमोगभाषा प्रायन है । 1से प्रतीत होता है कि प्राकृत मे रचा गया रोप्राचीन प्रान या न्हा होगा। सीमा न्यो में व्याकरण की अनेक वाते आई है। 'ठाणाग' के
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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