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________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एव कृतित्व २६ कोई अच्छा डाक्टर नहीं है । अच्छे वैद्य भी नही हैं। बाहर से आने वाले डाक्टरो और वैद्यो की दवा आचार्यवर ले नहीं रहे हैं। एक अच्छे वैद्य से निदान और उपचार की अपेक्षा थी। अब आप आ गए। बहुत अच्छा हुआ। आप शीघ्रातिशीघ्र रोग का निदान कर उपचार शुरू करें। पडितजी समूचे सघ के मन को पढ़कर हर्ष से गदगद् हो रहे थे। सबके मन मे आज एक ही भावना है आचार्यवर शीघ्र स्वस्थ हो। मैं आचार्यवर के स्वास्थ्य-लाभ मे कारण बनू, यह मेरा सौभाग्य होगा। उन्होने नाडी की परीक्षा की। आखो, नाखूनो, जीभ, यकृत और प्लीहा को देखा । रोग का निदान कर आत्म-विश्वास के साथ रोग का उपचार शुरू कर दिया। पडितजी ने रोग का निदान इस प्रकार किया- उदर-व्याधि, मदाग्नि, विषम ज्वर, सूखी खासी, शोथ, उदर वृद्धि और मधुमेह । पडितजी ने इस निदान के आधार पर चिकित्सा शुरू की। सव रोगो को निर्मल करने के लिए अनेक औषधिया दी। उनकी औषधि की एक विशेषता थी कम मात्रा। उदर पर गोमूत्र का सिंचन भी शुरू किया गया । प्रात और साय दोनो समय नाडी की परीक्षा करते और आवश्यकतानुसार औपधि मे परिवर्तन भी। एक सप्ताह बीत गया। बीमारी में कोई कमी नहीं हुई। दूसरा सप्ताह बीत रहा था, फिर भी विशेष लाभ प्रतीत नही हुमा ।पडितजी ने सोचायह क्या हुआ? टीप जल रहा है । पर अन्धकार ज्यो का त्यो है। ठीक वैसे ही हो रहा है कि दवा चल रही है पर रोग ज्यो का त्यो है। यदि लाभ नहीं, तव दवा कब तक चलेगी? और यह समाज का प्रश्न है, आचार्यवर का शरीर एक व्यक्ति का शरीर नहीं है, यह समाज का शरीर है । यदि कोई घटना घटित होती है तो उसका समूचे समाज पर असर होता है। मैं दवा देना बद कर चिकित्सा से हाथ खीच लू, यह कैसे हो सकता है और लाभ न होने की स्थिति मे दवा चलती रहे, यह भी उचित नहीं। वे एक भारी मानसिक उलझन मे फस गये । उन्होने अपने मन की उलझन मनी मुनि मगनलालजी के सामने रखी। उनसे परामर्श चाहा कि मुझे क्या करना चाहिए । इस परामर्श के मध्य एक बात ध्यान मे जची कि यदि स्वामी लच्छीरामजी आ सके तो मन को कुछ समाधान मिले । वे बहुत बडे अनुभवी कुशल चिकित्सक हैं। उनकी तुलना का वैद्य आसपास मे नही है। वे आचार्यवर के शरीर की परीक्षा कर औषधि का निर्णय करें। पडितजी ने स्वामी लच्छीरामजी को सस्कृत मे २१ पधो का एक पत्र लिखा। उसमे रोग-निदान और रोग-चिकित्सा दोनो प्रस्तुत कर उनसे परामर्श मागा। वृद्धिचन्दजी गोठी और पूर्णचन्दजी चोपडा उस पत्र को लेकर स्वामी लच्छीरामजी के पास जयपुर गए। उनके चिकित्सालय में उनसे मिले । अपने आने का प्रयोजन बता पडित रघुनन्दनजी का पत्र उन्हें दिया। स्वामीजी पत्र को पढ़
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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