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________________ संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४४६ यथाविधि उपदेश (११।१०७), निमन्तित (११।१०८), यज्ञमही (११।१०६), वेदमगलनिस्वन (११११०६), अब्रह्म (११।१०६), आत्विजीन (११।१६३), माणवक (११।१६३), हेतुजित असम्बद्ध भाषण (११।१६४), उपपत्ति (११।१६५, १६६), अकत क वेद (११११६७), प्रमाण (११।१६७), अतीन्द्रिय (११।१६७), वर्णतय (११११६७), कर्म (११।१६७), अपूर्व धर्म (११।१६८), याग (११।१६८), फल (११।१६८), स्वर्ग(११।१६८), प्रत्यवाय (११११६६), शास्त्रचोदित (११।१६९), वितान (११।१७०), दुर्ग्रन्थभावनादूषितामा (११।१७१), सर्वज्ञ (११।१७२, १७७), शब्दार्थबुद्धिभेद (११।१७२), असत् अर्थ (११।१७४), वाव्यतिक्रम (११।१०४) अनुमान (११११७६), प्रतिज्ञा (११।१७६), अभाव (११।१७६), आगम (११।१७८), विरोध (११।१७८), अनेकान्त (११।१७८), साध्य अर्थ (११।१७८), सिद्धप्रसाधक (११११७८), सर्वथा अयुक्तवक्तृत्व (११।१७६), असिद्ध (११।१७६), स्याद्वाद् (११।१७६), सिद्ध (११।१८०), विरुद्ध (११।१८०), साधन (११।१८०, १८६), दोषवान् आगम (११।१८१), साध्यविहीन दृष्टान्त (११।१८२), एकान्तयुक्तोक्ति दृष्टान्त (११।१८३), साध्यसाधनवकल्य (११।१८३), संघर्मा (११।१८३), अदृष्टवस्तु (११११८४), वेद (११।१८४) दूषण (११११८४), हेतु-समाश्रयण (११।१८४), सर्वशतायोग (११।१८५), व्यतिरेक (११।१८६), अविनामाव (११।१८६), स्वपक्ष (११।१८७), अपेक्षितविपर्यय (११।१८८), वेदस्य कर्तभाव (११।१८६), युक्त्यमात्र (११११८६) ससाध्य (११।१८९), दृश्य (११।१८९), हेतुसभव (११।१८६), पदवाक्यादिरूप (११११६०), विधेयप्रतिषेध्यार्थ (११।१६०)। प्रजापति (११।१६१), श्रुति (११।१६२), रागद्वेष (११।१६२) ग्रन्यदेशन (११११९३), जात्या चातुर्विध्यम् (११।१६४), ५लोकाग्नि (११११९४), मातिभेद (११।१९५), वर्णव्यवस्थिति (११।१९८), ब्रह्मा मुखादिसमव (११।१६६), निहतु (११।१६६), भाषमाणक (११११६६), गुणयोग(११।२००), ब्राह्मण (११।२०१), क्षत्रिय (११।२०२), वैश्य (११।२०२), शूद्र (११।२०२), जाति (११।२०३), गुण (११।२०३), चातुर्वर्ण्य (११।२०५), अपूख्यि धर्म (११।२०६), नित्य (११।२०६), अनित्य (११।२०६) प्रायश्चित्त (११।२१०), सोम (१११२११), प्रतर्पण (११।२१२), द्वादशीदक्षिणा (११।२१३), मायु (११।२१४), व्यभिचार (११।२१५), स्वयम्भू (११२१७), लोक (११।२१७), सर्ग (११।२१७), पुराणतणदुर्बल (१११२१७), कृतार्य (१११२१८), सम्यक्त्व (१११२२३), एकान्तवादी (११।२२३), निश्चय (११।२२६), अनवस्था (११।२२७), प्रश्न (११।२३१), बीज पादप (११।२३१), ब्रह्मलोक (११।२३७) वसु (११।२३८), स्वपक्षानुमतिप्रीति (११।२३६), पति (११११३६, २४४),
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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