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________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एव कृतित्व : २१ के लिए छोडकर आगे बढ जाते। वह चिन्तन मे पड़ा रहता। कुछ दिनो बाद अर्द्धनिद्रा मे उसको अर्थ ध्यान मे आ जाता। ऐसा अनुभव होता, मानो मधवागणी उन्हे वह अज्ञात् विषय समझा रहे है। ऐसी घटना उनके जीवन मे अनेक बार घटित होती थी। मनोविज्ञान इसकी व्याख्या अपने ढग से करता है कि अवचेतन मन मे गया हुआ विषय स्वय समाधान प्रस्तुत कर देता है। आचार्यवर ने इसकी व्याख्या अपने ढग से की। पर वे इस मनोवैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग __ करते थे और उसमे सफल भी होते थे । ( ३ ) __ आचार्यवर के हाथ के लिखे हुए कुछ पन्ने प्राप्त हैं। उनमे सरस्वती-मन लिखे हुए हैं। सरस्वती की उपासना बहुत प्राचीन काल से प्रचलित है। अनेक आचार्यों ने इस विषय मे अनेक मंत्रो की रचना की। आचार्यवर ने उनमे प्रमुखप्रमुख मन अपने पत्नों मे लिखे थे। इससे पता चलता है कि उनके मन मे विद्या के विकास की भावना बहुत प्रबल थी। सभव है, उन्होने सरस्वती-मत्र की साधना भी की हो। हमारे धर्मसंघ मे आज विद्या की जितनी शाखाए विकसित हैं, उनका बीजवपन आचार्यवर ने ही किया था। तेरापथ धर्मसघ वर्तमान युग मे एक प्रबुद्ध धर्मसघ के रूप मे प्रतिष्ठित है। उसके प्रबुद्ध साधु-साध्वियों के कर्तत्व से विज्ञसमाज प्रभावित है। उसका मूल श्रेय आचार्यवर की दूरदर्शिता को ही है । सस्कृत विद्या का विकास उनके युग मे ही हो चुका था। हेमशब्दानुशासन का आठवा अध्याय प्राकृत परिवार की छ भाषाओ का व्याकरण है । आचार्यवर ने मुझे और मेरे विद्यार्थी मुनि नथमलजी को उसका पा० कठस्य करा दिया था। न्यायशास्त्र के विषय मे उन्होंने 'प्रमाणनयतत्वालोक' का चुनाव किया। उसकी एक हस्तलिखित प्रति वे अपने पास रखते थे और समय-समय पर उसका पारायण किया करते थे । साहित्य के क्षेत्र मे अनेक आयाम खुल चुके थे। उस समय का मुनिगण काव्यपाठी ही नहीं था, काव्य-निर्माता भी हो चुका था। आचार्यवर कविता को बहुत प्रोत्साहन देते थे। वे स्वय बहुत अच्छे कवि थे, पर स्वय कविता नहीं लिखने थे। दग्धाक्षर की आशका से ही ऐसा हुआ था। वे कभी-कभी कविता लिखते, वह बहुत सुन्दर होती थी। स० १६६१ की बात है। मारवार्ड प्रदेश की याना हो रही थी। आचार्यवर बडे गुडे मे विराज रहे थे। फाल्गुन वदी सप्तमी को" सायकालीन प्रतिक्रमण के बाद मैं आचार्यवर की वन्दना करने गया। तब आचार्यवर ने मुझे लक्ष्य कर तत्काल एक सोरठा बनाकर मुझे कहा सीखो विद्यासार, परहो कर परमाद नै । बधसी बहु विस्तार, धार सीख धीरज भने ।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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