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________________ संस्कृत के जन पौराणिक काव्यों की शब्द-सम्पत्ति ४३७ 'खलीकारमिमा येन त्वयका प्रापिता मुधा ।।४६ इसी प्रकार आदिपुराण मे जिनसेन ने 'कुत्सिता ते' के अर्थ मे 'तके' का प्रयोग किया है "अकरा भोक्तुमिच्छन्ति गुरुदत्तामिमा तके।" आख्यात-पदो के समस्त सभावित रूपो की छट। इन काव्यो मे देखने को मिलती है। कुछ अनुरागात्मक क्रियाओ का निर्माण भी इन कवियो ने किया है जिस पर प्राकृत का प्रभाव है। जिस प्रकार विमलसूरि ने अपने उमचारिय' मे 'कडकडकन्ति, कढकढकन्ति', 'कणकणकणन्ति',५० किलिकिलिकिलत',५१ 'खणखणखणति',५२ गुमसुमायर',५३ 'मुगुमुगुमत',५४ 'मुगुमुगुमेन्त',५५ 'गुलगुलगुलान्त',५६ गुलगुलायन्त', 'गुलगुलगुलेन्त',५८ धुषुधुधुधुपेन्त',५९ 'धुलहुलवहन्त,'६० 'चडचडपडन्त', 'छिमिछिमिछिमन्त,,६२ 'तडतडतडत्ति,६३ भुगुभुगेन्त आदि अनुरणनात्मक शब्दो का प्रयोग किया है। उसी प्रकार रविषण ने अपने पद्मपुराण मे किया है। उदाहरणार्थ (अ) "नपनपायतेऽन्यत तया दमदमायते । छमाछमायतेऽन्यत्र तथा पटपटायते ।। छलछलायतेऽन्यत्र ८६८६ायते तया। तटतटीयतेऽन्यत्र तया चटचटायते ॥ घरधनग्यायतेऽन्यत्र रण शस्त्रोत्यितै स्वर ॥"६५ (आ) भवन्मृगनिस्वानात् क्वचिद् गुलुगुलायते । भुभुद्भुम्मायतेऽन्यत्र कृचित्५८५८ायते ॥ इन कवियो की यह बलवती इच्छा रही है कि इनके पाठको को एक ही स्थान पर एक श्रेणी के शब्दो का सघात मिल जाये। रविषण ने एक ही स्थान पर लट्लकार के प्रथम पुरुष बहुवचन की क्रियाओ का भव्य सयोजन किया है। आख्यातपदो का यह प्रयोग यह देखने योग्य है। "चक्रवत्परिवर्तन्ते व्यसनानि महोत्सव । શનૈયાયો હોપ પ્રયાન્તિ પરિવર્ધનમ્ . क्रिश्यन्ते द्रव्यनिर्मुक्ता नियन्ते बालतासु च । पूर्तापात्तायुपि क्षीणे हेतुना चोपसहृते ।। नाना भवन्ति तिन्ति निघ्नते शोचयन्ति च । रुदन्त्यदन्ति बाधन्ते विवन्ति ५०न्ति च ॥ ध्यायन्ति यान्ति पलान्ति प्रभवन्ति वहन्ति च । गायन्त्युपासतेऽनन्ति दरिद्रति नदन्ति च ।। जयन्ति रान्ति मुञ्चन्ति राजन्ते विलसन्ति च । तुष्यन्ति शासति शान्ति स्पृह्यन्ति हरन्ति च ।।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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