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________________ सस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४३५ रचना की है और एक स्थान पर ही एक हजार आठ नामो की उद्भावना की है। व्यक्तिवाची नामो के रूप मे विशेषण कैसे परिवर्तित हो जाते है इस सहस्त्रनाम मे यह देखते ही बनता है। इन नामो की व्याख्या के लिए पर्याप्त स्थान और समय अपेक्षित है। व्यक्तिवाची नामो के अतिरिक्त भौगोलिक शब्दावली मे भी इन कवियो का कल्पना-विलास तथा शब्द-निर्माण-कौशल देखने को मिलता है। शोधको द्वारा भूगोलपरक स्थान-पर्वत-वन-नदियों का अस्तित्व सिद्ध होना न होना अलग वात है जिससे हमारा यहाँ कोई प्रयोजन नही है। हमारा उद्देश्य तो कवियो के शब्दनिर्माण-कौशल का प्रत्यायन करना है जो अपने मे एक रोचक विषय है। सज्ञापदो के अतिरिक्त विशेषणपरक शब्दावली भी अत्यन्त समृद्ध है। विशेषणो के निर्माण मे जिन प्रक्रियाओ का अवलम्बन इन कवियो ने किया है । उनका अध्ययन भी रोचक हो सकता है। इन पौराणिक काव्यो की पद्यमयता को ध्यान में रखते हुए परिमित मात्राओ तथा अक्षरो मे विशेष्य की विशेषताओ को प्रकट करने वाले विशेषण-पदो की रचना मे ये जन कवि अत्यन्त सिद्धहस्त हैं। विशेषणमालाओ का प्रयोग करते हुए रविषण ने 'रण' और 'विपिन' के साक्षात् चिन उपस्थित कर दिये है रणपाक विशेषण "कणदवसमुधूढस्यन्दनोन्मुक्तचीत्कृतम् । तुरगजवविक्षिप्तभटसीमन्तिता विलम् ।। नि कामद्रुधिरोद्गारसहितोरुभटस्वनम् । वेगवस्त्रसम्पातजातवाहककरम् ॥ करिशरकृतसम्भूतसीकरासास्त्रालकम् । करिदारितवक्षस्कभटसकट भूतलम् ॥ पर्यस्तकरिसरुद्ध रणमार्गाकुलायतम् । नागमेधपरिश्च्योतन्मुक्ताफलमहोपलम् ।। मुक्तासारसमाघातविकट कर्म रगकम् । नागोज्छालितपुन्नागकृतखेच रसगमम् ।। शिर क्रीतयशोरत्न मूच्छजिनित विश्रमम् । मरणप्राप्तनिर्वाण वभूव रणमाकुलम् ॥ (वनपरक विशेषण) ततस्ते भूमहीध्रानगावातमुकर्कशम् । महातसमारूढवल्लीतालसमाकुलम् ।।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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