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________________ संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यों की शब्द-सम्पत्ति (पद्मपुराण, हरिवशपुराण आदिपुराण तथा उत्तर पुराणके सन्दर्भ में) डा० रमाकान्त शुक्ल सस्कृत के जैन पौराणिक-काव्यो की श०८-सम्पत्ति पर विचार करते समय महाकवि माध का यह वाक्य सहसा ध्यान मे आ जाता है "शब्दार्थों सरकविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते।" पौराणिक काल्यो की सर्जना करते समय जैन-कवि शब्दो के प्रयोग मे वडा जागरूक रहा है। अपने युग के सम्पूर्ण जीवन तथा चिन्तन को, शब्दो के माध्यम से, वह एक ही काव्य मे अन्तर्मुक्त करके प्रस्तुल करना चाहता है और अपने पाठक को 'कान्तासम्मिततयोपदेश' देने के साथ-साथ उसके सामान्य और विशिष्ट ज्ञान में परिवर्द्धन भी करना चाहता है। वह अपने पाठक को केवल कल्पना-लोक-विचरण का ही अवसर देने मे अपने कर्तव्य की इतिश्री नही समझ लेता अपितु उससे अपेक्षा रखता है कि वह अपने देश-काल से परिचित रहे एव लोक से अपने को कटा हुआ न अनुमव करे। वह अपने समय तक विधमान लोक तथा शास्त्र को अपने शब्दो के माध्यम से प्रस्तुत करता है। सस्कृत के जन पौराणिक काव्यो मे प्रयुक्त महान् अर्थवैभव के व्यजक शब्दो का अनुशीलन करने के लिए पाठक को भी लोक और शास्त्र की व्यापक और गम्भीर पैठ अपेक्षित है। जैनाचार्य रविणकृत 'पद्मपुराण' पुन्नाटसधी जिनसेनाचार्यकृत हरिवशपुराण' भगवजिनसेनाचार्य विरचित 'आदिपुराण' तथा गुणभद्रकृत 'उत्तरपुराण' ऐसे ही सस्कृत के जैन पौराणिक काव्य हैं जिनकी शब्द-सम्पत्ति पर हम, प्रस्तुत लेख मे स्थान-सापेक्ष विचार करना चाहते है। इन चारो ग्रन्थो को हमने 'पुराण' न मानकर पौराणिक काव्य' माना है। हमारी इस धारणा को इन चारो ग्रन्थो की रचना-पद्धति पुष्ट करती है । 'पुराण' नाम रखने पर भी इनके कवि इन्हे काव्योचित गुणो से सम्पन्न रखना चाहते है। रविषेण बाणभट्ट तथा कालिदास की शैली मे 'पद्मपुराण' की रचना करते है।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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