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________________ आचार्य श्री कालूगणी . व्यक्तित्व एव कृतित्व १६ सवत् १९७६ की बात है । भीनासर मे कुछ व्यक्ति तत्वचर्चा करने आए। चर्चा प्रारम्भ हो गई। उसके बीच आचार्यवर ने सूत्रकृताग के प्रथम श्रुत-स्कन्ध के ११वे अध्ययन (१६-२१) की टीका का एक पाठ उन्हे वनलाया। वे सस्कृत नहीं जानते थे। अत उन्होने कहा हम कल किसी सत्कृत विद्वान् को साथ लेकर आएगे। आपने जो अर्थ बताया वह हमे जचा नहीं। वह जचता भी कसे, उस पाठ से उनके पक्ष को समर्थन नहीं मिल रहा था। एक ही दिन बाद वे पडित गणेशदत्तजी को साथ लेकर आए । तत्वचर्चा को सुनने के लिए बीकानेर के लोग भी काफी संख्या में उपस्थित थे। आचार्यवर ने फिर प्रसग को चालू करते हुए टीका का अर्थ उन्हें बताया। उन लोगो ने पडित जी से कहा आप बताइए, टीका के इस पाठ का अर्थ क्या है ? पडितजी ने टीका का पन्ना अपने हाथ मे लिया, उसे ध्यान से पढा। उसका अर्थ समझने का प्रयत्न किया। फिर वे बोले मैं आपके साथ आया है। आपका पक्षधर होकर आया है। फिर भी मुझे यह कहना होगा कि टीका के इस पाठ का वही अर्थ है, जो पूज्य कालूगणी जी ने लिया है। उन लोगो ने कहा पडितजी आप फिर इसे ध्यान से पढिये। यह अर्थ हमारी समझ मे नही आया है। पडितजी ने दुबारा उसे पढ़ा और कहा आपकी समझ मे आए या न आए, पर इसका अर्थ वही है, जो अभी-अभी आपको बताया गया था। सब लोग मौन हो गए ! कनीरामजी बाठिया ने कहा-पडितजी | आप भले ही पूज्यश्री का समर्थन करें, मैं इस अर्थ को नहीं मानता। तब आचार्यवर ने कहा- 'मैं नही मानता'--इसका उपाय मेरे पास भी नही है । शायद दुनिया की किसी भी शक्ति के पास नहीं है। तत्वचर्चा के अनेक प्रसग आते थे । आचार्यवर की अन्तर्-आत्मा बहुत निर्मल थी। अत हर प्रसग निर्मलता के साथ ही सम्पन्न हो जाता था। कोई-कोई प्रमग खेदजनक भी बन जाता था। स० १६६१ की घटना है। आचार्यवर जोधपुर चतुर्मास के लिए यात्रा कर रहे थे। कालू पधारे। वहा के कुछ दिगम्बर भाई तत्वचर्चा के लिए आए। स्त्री की मुक्ति होती है या नही होती, इस विषय पर चर्चा हो रही थी। आचार्यवर ने गोम्मटसार की निम्नाकित गाथाए उद्धृत की, जिनसे स्त्री की मुक्ति का समर्थन होता है "होति खवाइगि समये बोहियवृद्धा य पुरिसवेदा य । उपकुसेण त्तर-सयप्पमा सग्गदो य चुदा ॥ पत्ते यवुद्ध तित्थय रत्थि णउसयमणोहिणाण जुदा । दस छक बीस दस बीसट्ठावीस जहाकमसो ॥ जेट्ठा पर वहु मज्झिम ओगाहणगादु चारि अव । जुगव हवति खवगा उपसमगा सद्धमेदेसि ॥"१०
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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