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________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एव कृतित्व १७ भिक्षुशब्दानुशासन का पारायण किया। मुनि चौथमलजी ने भिक्षुशब्दानुशासन के प्रक्रिया-ग्रथ के रूप मे कालूकीमुदी की रचना की। इसके प्रथम अध्येताओ मे मेरे विद्यार्थी मुनि नथमल, बुद्धमल्ल आदि रहे। पडितजी ने भिक्षुशब्दानुशासन का पद्यवद्ध लिङ्गानुशासन तैयार किया। न्यायदर्पण, उणादिपा०, धातुपाठ और गणपाठ भी तैयार हो गया। इस प्रकार देखते-देखते महाव्याकरण सर्वांगपूर्ण हो गया। चर्चा के अवसर और समता का अवगाहन ___ कालूगणी का विहार क्षेत्र सस्कृतज्ञ विद्वानो का क्षेत्र था। उस समय रामगढ, फतेहपुर, चूरू, रतनगढ और बीकानेर मे सस्कृत विद्या के केन्द्र थे। इनमें सैकडो सस्कृतज्ञ विद्वान थे। जैसे-जैसे हमारे सघ मे सस्कृत विद्या का विकास हुआ, वैसेवैसे उन विद्वानो का सपर्क बढने लगा। एक बार चन्द्रशेखरजी शास्त्री आचार्यवर के पास आये । वातचीत हो रही थी। मुनि सोहनलालजी ने पडितजी के सामने एक जिज्ञासा प्रस्तुत की। उन्होने कहा 'कथ द्वयेषामपि मेदिनी भृताम्' इस श्लोक मे 'द्वयेपा' का प्रयोग कैसे हुआ है ? यह व्याकरण से सिद्ध नही होता है। शास्त्रीजी ने इस जिज्ञासा को दूसरे अर्थ मे लिया । उन्होने सोचा, जैन मुनि महाकवि कालिदास के प्रयोगो मे त्रुटि निकालना चाहते हैं। वे उस शब्द की सिद्धि के लिए धाराप्रवाह सस्कृत मे बोलने लगे। वे विना रुके बोलते ही गये। उन्होने दूसरो को अपनी बात कहने का मौका ही नहीं दिया। उनकी वाशक्ति पर सव आश्चर्यचकित थे । आचार्यवर को लगा कि यह समय का सदुपयोग नही हो रहा है। उन्होने कहा शास्त्रीजी। साधुओ ने जानकारी की दृष्टि से प्रश्न पूछा था। उनके मन मे कोई विरोधी भावना नहीं थी। आप इसे सहज रूप मे ही लें। आपकी वाक्-पटुता से मैं मुग्ध हू । पर जो कम बोलता है, उसे मैं कम समझदार नही समझता । आचार्यवर के इस वचन से शास्त्रीजी का विवेक जाग उठा । वे तत्काल सभल गये। विनम्रता पूर्वक बातचीत कर अपने स्थान चले गये। तिरस्कार तिरस्कार की भावना को जगाता है और सम्मान सम्मान की भावना को । आचार्यवर ने शास्त्रीजी के सम्मान की सुरक्षा की। उनके मन मे भी आचार्यवर के प्रति सम्मान की भावना जागी। वे दूसरे दिन आये और विनम्र स्वर मे वोले - सायतने गतदिने भवदीयशिष्य , साक विवादविषयेऽत्र यते । प्रवृत्ते । यत् किञ्चिदल्पमपि जल्पितमस्तु कोण, क्षन्तव्यमेव भवताऽत्र कृपापरेण ।। विशदबोधविशुद्धमतिप्रभा, धवलिता ललिता वचनावलि । भगवतो मुखपद्मविनि मृता, सुमुदमातनुतेऽतनुतेजस । आचार्यवर ने उनकी विनम्र भावनाओ को स्वीकार किया। वे जीवनभर
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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