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________________ ३९४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण को परापरा "तोत्र आदि सपादित और अनुवादित अथ तथा शताधिक शोध-निवध गोधको के लिए मार्गदर्शक बने हुए है। ___पुरातन-जैन, वाक्य-सूचि वस्तुत एक ढग का कोशन थ है, जिसमे ६४ मूलनको के पश-वाक्यो की अकारादिक्रम से सूचि है। इसी मे ४८ टीकादि ग्रथो मे उद्धृत प्राकृत-पच भी सगृहीत कर दिये गये है। कुल मिलाकर ५०वीस हजार तीन सौ पावन प्राकृत-पद्यो की अनुक्रमणिका के रूप मे इस ग्रथ को तैयार किया गया है। इसके आधारभूत ग्रय विशेषत दिगम्बर सम्प्रदाय के हैं। जहा तहा आचार्य 'उक्तच' लिखकर अपने पूर्वाचार्यों के पद्यो का उल्लेख करते रहे हैं जिनका खोजना कभी-कभी कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से यह ग्रथ शोषको के लिए अत्यधिक उपयोगी बन जाता है। इसके सपादन मे डॉ० दरवारीलाल कोठिया और प० परमानद शास्त्री ने विशेष सहयोग दिया है। इसका प्रकाशन वीरसेवा मदिर से सन् १९५० मे हुआ। इस ग्रथ की प्रस्तावना १६८ पृष्ठ की है, जिसमे मुख्तार सा० ने सम्बद्ध ग्रथो और आचार्यों के समय और उनके योगदान पर गभीर चितन प्रस्तुत किया है। ५ जनप्रथ-प्रशस्ति-सग्रह ___इसका दो भागो मे वीर सेवा मदिर से प्रकाशन हुआ है। प्रथम भाग का सपादन प० परमानदजी के सहयोग से श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने सन् १९५४ मे किया। इसमे संस्कृत प्राकृत भाषाओ के १७१ ग्रथो की प्रशस्तियो का संकलन किया गया है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से बडी महत्वपूर्ण है । इन प्रशस्तियो मे सघ, गण, गच्छ, वश, गुरुपरम्परा, स्थान, समय आदि का सकेत मिलता है। इस भाग मे कुछ परिशिष्ट भी दिये गये है जिनमे प्रशस्तिगत मौगोलिक नामो, मों, गणो, गच्छो, स्थानो, राजाओ, राजमनियो, विद्वानो, आचार्यो, भट्टारको तया श्रावकश्राविकाओ के नाम की सूची को अकारादिक्रम से दिया गया है। प० परमानदजी द्वारा लिखित ११३ पृष्ठो की प्रस्तावना विशेष महत्त्वपूर्ण है। जनप्रथ-प्रशस्ति-संग्रह के दूसरे भाग के सम्पादक है प० परमानद शास्त्री जो जनशोध क्षेत्र में इतिहास और साहित्य के सर्वमान्य विद्वात् है। आपने वीरसेवा मदिर के अनेकान्त पत्र का लगभग प्रारभ से ही सम्पादन का भार उठाया और શતાધિશોવ નિવવો સ્વય નિરવર પ્રકાશિત ફિયા વિદદ્ નાનું પરમાનદ્ર जी की सूक्ष्मेक्षिका से भलीभाति परिचित है। उन्होंने मस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश तथा हिन्दी के अनेक आचार्यों का काल-निर्धारण किया एवं उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर असाधारण रूप से शोध-खोजकर प्रथमत प्रकाश डाला । उनका एक नवीनतम ग्रथ जनधर्म का प्राचीन इतिहास अपने वृहदाकार मे देहली से प्रकाशित हुआ है, जो उनकी विद्वत्ता का परिचायक है।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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