SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६२ साकृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा मूल उद्धरणो को भी इसमे सम्मिलित किया गया है। ये उद्धरण सक्षिप्त और उपयोगी है। उनमे अभिधान राजेन्द्र कोश जैसी बोझिलता नही दिखती । अभिधान राजेन्द्र कोश की अन्य कर्मियो को भी परिमार्जित करने का प्रयत्न किया गया है। इस कोण मे आम साहित्य तथा आगम से निकटत संबंध रखने वाले विशेषावश्यक भाज्य, पिंड, नियुक्ति, ओधनियुक्ति आदि ग्रथो का उपयोग किया गया है साथ ही शब्द के साथ उसका व्याकरण भी प्रस्तुत किया गया है। अर्धमागधी से अतिरिक्त प्राकृत वोलियो के शब्दों को भी इसमे कुछ स्थान दिया गया है। इसके चारो भागो मे कुछ परम्परागत चिन भी सयोजित कर दिये गये है जिनमे आवलिकावध विमान, आसन्, ऊवलोक, उपशमश्रेणी, कनकावली, कृष्णराजी, कालचक्र, क्षपकश्रेणी, धन रज्जु, घनोदधि, १४ रत्न, चन्द्रमडल, जम्बूद्वीप नक्षत्रमडल, भरत, मेरू, लवणसमुद्र, लोभ, विमाण आदि प्रमुख है। इस कोश का सपूर्ण नाम An Illustrated Ardha-Magadhi Dictionary है और इसका प्रकाशन S S Jaina Conference इन्दौर द्वारा हुआ है। इस कोश के परिशिष्ट के रूप मे सन् १९३८ मे पचम भाग भी प्रकाशित हुआ। इसमें अर्धमागधी, देशी तथा महाराष्ट्री शब्दो का संस्कृत, गुजराती, हिन्दी और अग्रेजी भाषाओ के अनुवाद के साथ सग्रह हुआ है। परन्तु उनका यहा व्याकरण नहीं दिया जा सका। यह भाग भी लगभग ६०० पृष्ठो का है। मुनि रत्नचंद्र जी का यह सपूर्ण कोश छात्रो और शोधको के लिए उद्धरण ग्रथ-सा बन गया है । मुनिजी का जन्म स० १६३६ वैशाख शुक्ल १२ गुरुवार को कच्छ के भारी नामक ग्राम मे हुआ। आपका विवाह १३ वर्ष की अवस्था मे हुआ और स० १९५३ मे पत्नी की मृत्यु के बाद मुनि दीक्षा ले ली। इसके बाद उन्होने सस्कृत और प्राकृत ग्रथो का गहन अध्ययन किया और जीवन के उत्तरकाल में ग्रथ-निर्माण का कार्य हाय मे लिया। वे शतावधानी भी थे और तपस्वी भी। ३ पाइय-सह-महण्णव इस कोश के लेखक प० हरगोविन्ददास निकमचद सेठ का जन्म वि० स० १९४५ मे राधनपुर (गुजरात) में हुआ। उनकी शिक्षा-दीक्षा बहुत कुछ यशोविजय जन पा०शाला, वाराणसी में हुई। यही रहकर उन्होने सस्कृत और प्राकृत भाप। का अध्ययन किया। प० वेचरदास डोसी उनके सहाध्यायी रहे है । दोनो विद्वान् पालिका अध्ययन करके श्रीलका भी गये और बाद मे वे संस्कृत, प्राकृत और गुजराती के प्राध्यापक के रूप मे कलकत्ता विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए। न्यायव्याकरणतीर्थ होने के कारण जैन-जनेतर दार्शनिक प्रयो का गहन अध्ययन हो चुका या। यशोविजय जन अयमाला से उन्होने अनेक सस्कृत-प्राकृत ग्रथो का संपादन भी किया। लगभग ५२ वर्ष की अवस्था मे ही स० १६६७ मे वे कालकवलित हो
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy