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________________ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३७३ "पाइअ-सह-महणव" के द्वितीय सस्करण मे अपभ्रश भाषा के अनेक शब्दो को सम्मिलित कर दिया गया है, फिर भी "अपभ्रश-कोश" की आवश्यकता विशेष रूप से कचोट रही है । लेखक स्वयं इस प्रकार के कोश-निर्माण की दिशा मे कार्य रत है, किन्तु कई प्रकार की कठिनाइयाँ सम्मुख है। अपभ्र श-कोश यह अत्यन्त विचित्र बात है कि जिस भाषा मे पांच सौ से अधिक काव्य ग्रन्थ मिलते हो और जिससे आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओ का विकास हुआ हो तथा जो राष्ट्रभाषा हिन्दी की जननी हो उस भाषा का आज तक छोटा-बडा किसी भी प्रकार का शब्दकोश उपलब्ध नही होता । न तो मध्यकाल मे और न आधुनिक काल मे 'अपभ्रश-कोश' लिखने का कोई प्रयत्न किया गया। अपभ्रश-साहित्य का अध्ययन करते समय बार-बार यह विचार मेरे सामने आया कि इस भापा का एक शब्दकोश अवश्य होना चाहिए। किन्तु मेरे अग्रज तथा गुरुजन यही समझाते रहे कि अलग से अपभ्रशकोश की आवश्यकता नही है, प्राकृत मे ही अपभ्रश गभित हो जाती है। उनका यह तर्क सदा खटकता रहा है। किन्तु उत्साह भले ही मन्द हुमा हो, पर मैं हतोत्साह नही हुआ। क्योकि मेरी इस धारणा को सदा वल मिला है कि अपभ्रश प्राकृत से एक भिन्न भाषा है, इसलिये उसका शब्दकोश भी भिन्न होना चाहिए । अपभ्रंश भाषा मे अधिकतर प्राकृत-शब्द-सम्पदा लक्षित होती है। किन्तु उनका कई स्थलो पर अर्थ-निर्धारण करते समय पता चला है कि एक ही शब्द का जो अर्थ प्राकृत मे है, वह अपभ्रश मे नही है । ऐसे पांच सौ से भी अधिक शब्द मिलते है, जिनका अर्थ प्राकृत मे कुछ है और अपभ्रश मे कुछ और दूसरा है। उदाहरण के लिए, प्राकृत मे पाहल' शब्द का अर्थ म्लेच्छ की एक जाति है, किन्तु अपभ्रश मे व्याघ्र या नाहर है । प्राकृत मे 'डमर' का अर्थ विप्लव तथा कलह है किन्तु अपभ्रश मे भय है। इसी प्रकार प्राकृत मे "जत्त" का अर्थ जय या उद्योग है और अपभ्रश मे यात्रा है ।२२ इस तरह के अनेक शब्द है, जिनके आधार पर एक पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है । इनके अतिरिक्त कुछ माता-भेद से समानार्थी होने पर भी कोश मे उल्लेखनीय हैं, जैसे कि पसुलिपसुली, णास-णासा, विहल-विहाल, णालि-णाली, मड्डमड्डा इत्यादि । माताभेद के कारण कही-कही बहुत अन्तर परिलक्षित होता है । 'पाइअ-सद्द-महण्णव' मे मड्ड शब्द मर्दन अर्थ मे एक सकर्मक क्रिया है, किन्तु देशी नाममाला' मे उसका अर्थ बलात्कार है । बलात्कार अर्थ मे "पाइअ-सह-महणव" मे "मड्डा" शब्द आया है। इस शब्द से साम्य रखने वाला 'मड" शब्द का प्रयोग'पउमचरिउ' तथा 'भविसयतकहा' मे मिलता है । किन्तु पुष्पदन्त के 'महापुराण' मे (१३, २, ३) मे “मड्ड" का अर्थ नारिकेलवन (माड' मराठी)
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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