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________________ सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३६६ डॉ० व्युहर ने इस दिशा मे अग्रसर हो दो निबन्ध लिखे, जिनमे आचार्य हेमचन्द्र कृत 'देशी नाममाला' और धनपाल कृत 'पाइयलच्छीनाममाला' पर प्रकाश डाला। इतना ही नही, सन् १८७६ मे उन्होने स्वय ‘पाइयलच्छीनाममाला' का सम्पादन कर उसे गॉटिंगन से प्रकाशित कराया। इस प्रकार प्राकृत भाषा, व्याकरण और कोष आदि के प्रति पाश्चात्य जगत् विमुग्ध भाव से आकृष्ट हुआ। किन्तु प्राकृत साहित्य मे उपलब्ध शब्दो का अर्थ सस्कृतज्ञो के लिए दुरूह एव दुर्बोध था। अत यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि कोई अच्छा प्राकृत-शकोश तैयार किया जाए जो साहित्य-जगत् के लिए उपयोगी हो। इसी आवश्यकता से प्रेरित होकर इटली के विद्वान डॉ० ल्युइजी स्वाली ने सन् १९१२ मे प्राकृतकोष निर्माण करने की अपनी अभिलाषा प्रकट की। किन्तु उसी समय विश्व युद्ध की विभीपिका चल पडी, जिससे वह कार्य नहीं हो सका। भारत मे यह कार्य मुनि श्री विजयराजेन्द्र सूरीश्वर ने वि० स० १६४६ मे प्रारम्भ किया था। ६३ वर्ष की वृद्धावस्या मे इस महान कार्य का आरम्भ कर लगभग चौदह वर्षों तक वे अनवरत जुटे रहे । सूरिप्रवर की महान् साधना से आठ हजार शब्दो का विशाल संग्रह 'अभिधान राजेन्द्र कोश' के रूप मे हुआ। प्राकृत का यह वृहत्कोश सात भागो मे निबद्ध है। इसका प्रथम भाग १६१३ ई० मे, द्वितीय भाग १६१० मे, तृतीय भाग १६१४ मे, चतुर्थ १६१३ मे, पचम १९२१ मे, पष्ठ १६३४ मे और सप्तम भाग १६३४ मे मध्यप्रदेश के रतलाम नगर से प्रकाशित हुए। इसी बीच इन्दौर के श्री सरदारीमल भण्डारी के पिता श्री केसरीचन्द्र ने सन् १९१० ई० मे प्राकृत-कोश-निर्माण का कार्य आरम्भ किया । उन्होने निरन्तर श्रम कर लगभग चौदह हजार शब्द भी शीघ्र सकलित कर लिये थे। किन्तु दुर्दैव से यह कार्य आगे नहीं चल सका। अन्त मे मुनिश्री रत्नचन्द्र जी म० के अथक प्रयत्न से यह पवित्न कार्य "सचिन अर्धमागधीकोश" के रूप में सामने आया। इसका प्रथम भाग सन् १९२३ ई० मे श्वेतावर स्थानकवासी जैन कान्फेन्स की ओर से इन्दौर से प्रकाशित हुआ। इसके चार वर्षों के पश्चात् वि० स० १९८३ मे इस कोश का द्वितीय भाग, वि० स० १९८६ मे तृतीय भाग, १९८८ मे पतुर्थ भाग और वि० स० १९६५ मे पचम भाग प्रकाशित हुआ। ___इसी अवधि मे कलकत्ता विश्वविद्यालय मे प्राकृत के प्राध्यापक पण्डित हरगोविन्ददास निकमचद सेठ ने "पाइस-स६-महण्णवो" नामक बृहत्कोश तैयार किया, जिसका प्रकाशन सन् १९२८ मे हुआ। इस कोश के निर्माण की प्रेरणा सन् १९१३ के लगभग लेखक को श्री विजयधर्मसूरीश्वर म० से प्राप्त हुई थी। यह एक सयोग की बात थी कि बीसवी शताब्दी के प्रारम्भ होते ही देश-विदेशो मे प्राकृत-शब्दकोश की खलने वाली अभाव की पूर्ति हेतु निर्माण की दिशा मे कार्य प्रारम्भ हुआ था।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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