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________________ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोसाहित्य : ३६७ ने अपने निवन्ध मे अनेक मराठी शब्दो को देश्य बताते हुए कहा है कि इन शब्दो का मूल प्राचीन महाराष्ट्री प्राकृत है।" डॉ० चटर्जी ने निश्चित रूप से इन देशी शब्दो का मूल स्रोत द्रविड भाषाएँ मानी हैं और यह सम्भावना व्यक्त की है कि अवशिष्ट शब्द आयत र भाषाओ के हे, सम्भवत वे द्राविड तथा आस्ट्रिकपूर्व की भाषाओ मे भी विद्यमान रहे हो।" यथार्थ मे ऐसे ही शब्द प्राकृत के मूल है जो वैदिक काल से वोलियो में प्रचलित चले आ रहे है। इनका मूल स्रोत सस्कृत न होकर प्राथमिक प्राकृत है । अमृत रो ने ऐसे ही कुछ शब्दो का साम्य द्रविड माषाओ की शब्दावली से स्थापित कर देशी को द्रविड, पारसी आदि कई भाषाओ से आगत शब्द माने है । डॉ० उपाध्ये ने प्राकृत नाटक मे तथा 'देशीनाममाला' मे आगत देशी शब्दो का सम्बन्ध कन्नड, मराठी आदि दक्षिण की भापाओ से माना है । यद्यपि आचार्य हेमचन्द्र की 'देशीनाममाला' के देशी शब्दो के सम्बन्ध मे कई शोध-निवन्ध प्रकाशित हो चुके है, जिनमे कई महत्त्वपूर्ण तथ्य व्यक्त किए जा चुके हे । स्वतन्त शोध-प्रबन्ध के रूप मे डॉ० श्रीमती रत्नाश्रियन् का शोधप्रबन्ध 'ए स्टडी ऑव देश्यवर्ड स फ्रॉम द महापुराण ऑव पुष्पदन्त' इस दृष्टि से अध्ययन करने के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है । परन्तु मेरी दृष्टि मे अभी भी नवीन शोध अनुसन्धानो के प्रकरण मे देशीनाममाला' का अध्ययन आर्य तथा आर्यत र भाषाओ के सम्बन्ध मे तुलनात्मक अध्ययन कर प्रस्थापित किया जाना चाहिए । केवल इस एक अध्ययन से ही इन भाषाओ के विकास पर एक प्रामाणिक तथा महत्वपूर्ण भूमिका प्रकाश मे आ सकेगी। इसी प्रकार तत्सम, तद्भव और देशज पर भी नये प्रकाश की आवश्यकता है। यह कार्य अत्यन्त श्रमसाध्य होने पर भी विशिष्ट महत्त्व का है। इस प्रकार के अध्ययन से ही 'देशीनाममाला' की वास्तविक उपयोगिता प्रकट हो सकेगी। उक्तिव्यक्तिप्रकरण यद्यपि प्राकृत के प्राचीन शब्दकोशो मे पाइयलच्छी नाममाला' तथा 'देशीनाममाला' इन दो का ही उल्लेख किया जाता है, किन्तु प० दामोदर कृत 'उक्तिव्यक्तिप्रकरण' को भी देश्यश०सग्रह के अन्तर्गत परिगणित किया जाना चाहिए। केवल इसे ही नही, 'उक्ति रत्नाकर' को भी देश्यभाषा के शब्द-सग्रह ग्रन्थो मे महत्वपूर्ण मानना चाहिए । 'उक्तिव्यक्तिप्रकरण' बारहवी शताब्दी की रचना मानी जाती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि तत्कालीन लोकबोली का सम्यक परिचय देता है । प० दामोदर बनारस के निवासी थे। उन्होने विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए इस रचना का निर्माण किया था। डॉ० चटर्जी इस रचना की भाषा प्राचीन कौशल देश की बोली कौशली मानते है। जनपदीय भाषा का व्याकरण की दृष्टि से कैसा सवध है और किस प्रकार देश्य शब्दो का सस्कार करने से सस्कृत का शुद्ध
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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