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________________ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३५६ (५०७) मे भी उपलब्ध है । अत इसकी प्रामाणिकता का पता चलता है। इसी प्रकार बहुसुता' का अर्थ 'शतावरी' किया गया है। यह शब्द 'शिवकोष' मे नही मिलता। अतएव ऐसे अप्रसिद्ध शब्दो का अर्थ समझने के लिए भी इसकी उपयोगिता निस्सन्देह है । 'निघण्टुशेप' मे कई ऐसे अप्रसिद्ध शब्द मिलते हैं जो आयुर्वेद के सामान्य निघण्टुओ मे दृष्टिगोचर नहीं होते। उदाहरण के लिए- गोपवल्ली, प्रतानिका, मृदङ्गफलिनी, कुटा, घण्टाली, अजाण्टा, फरण, पुस्तिका, कर्वरी, वर्वरी, अर्जुन पास, उलपू, मुशटी इत्यादि । इनमे से अनेक शब्द देशी प्रतीत होते है, जो तत्कालीन लोक बोलियो मे प्रचलित थे। अतएव आयुर्वेद के शब्दकोशो मे उनका प्रवेश सहज तथा स्वाभाविक था । अतएव कोशकार के वचन सत्य प्रमाणित होते हैं। लिङ्गानुशासन आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत लिंगानुशासन' भी एक स्वतन्त्र लघु रचना है। यह भी एक अभिधानकोश है जो १३८ श्लोको मे निबद्ध है । इसमे सात विभाग है प्रयम पुलिगाधिकार मे १७ श्लोक, द्वितीय स्त्रीलिंगाधिकार मे ३३ श्लोक, तृतीय नपुसकलिगाधिकार मे २४ श्लोक, चतुर्थ पुस्त्रीलिंगाधिकार मे १२ श्लोक, पचम पुनपुसकलिंगाधिकार मे ३६ और ५०० स्त्रीनपुसकलिंगाधिकार में केवल ५ तथा स्वतस्तिलिंगाधिकार मे केवल ६ श्लोक है । अन्त मे पाच श्लोक और है । अन्त मे ३८ श्लोको मे निबद्ध एकाक्षरकोश' भी है, जिसमे केवल एक अक्षर वाले शब्दो के विभिन्न अर्थों का उल्लेख किया गया है। विश्वलोचनकोश श्रीधरसेन कृत विश्वलोचनकोश' संस्कृत के सुबन्ध कोशो मे एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसका एक अन्य नाम मुक्तावलिकोश भी है। कवि श्रीधरसेन दिगम्बर आम्नाय के सेन सघ की परम्परा के थे। वे स्वय शास्त्रो के पारगामी कवि और नैयायिक थे । वे स्वय शास्त्री के पारगामी कवि और नैयायिक थे। श्रीधरसेन भी अपने गुरुवर के समान विद्वान् तथा महान् राजाओ के द्वारा सम्मान्य थे। सस्कृत के 'विश्वप्रकाशकोश' की भाति विश्वलोचनकोश' के भी टीका ग्रन्थो मे उद्धरण मिलते है, जिससे इसके ५०न-पाठन तथा लोकप्रियता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । सुन्दरगणि ने अपने ग्रन्थ 'धातु रत्नाकर' मे इस कोश के कई उद्धरण दिए है। यह शब्दकोश न अधिक विशाल और न अधिक सक्षिप्त होने के कारण विद्वानो और विद्यार्थियो दोनो के लिए समान रूप से उपयोगी है। विक्रमोर्वशीय की गनाथ कृत टीका मे भी विश्वलोचनकोश' का उल्लेख मिलता
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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