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________________ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की आनुपूर्वी मे कोण साहित्य ३४५ सम्बन्ध में प्रत्येक प्रकार की जानकारी देने वाला कोश ही प्रामाणिक माना जाता है। कोश केवल शब्दो की सकलना मात्र नहीं है । उममे शब्द के प्रकृत रूप से लेकर उच्चारण, व्युत्पत्ति, लिंग, धातुगत अर्थ, पर्यायवादी शब्द तथा व्याकरणिक निर्देश यथास्थान किया जाता है। शब्दकोश की उत्पत्ति ___ कोश को सस्कृत-साहित्य मे व्यावहारिक साहित्य का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अग माना गया है। इस देश मे कोशो का अस्तित्व छब्बीस सौ वर्ष से भी अधिक काल का मिलता है। भारतीय परम्परा अत्यन्त प्राचीन काल मे मौखिक थी। इसलिये यह कहना बहुत ही कठिन है कि यह कब से प्रारम्भ हुई। किन्तु इसे वैदिक तथा शास्त्रीय संस्कृत साहित्य का समकालीन रूप कहा जाता है जो कि सामान्यत निघण्टुओ के रूप में प्रचलित था। परवर्ती काल मे इसमे परिवर्तन होते रहे । वस्तुत कोश भाषिक शब्दो का अविछिन्न अग है । इसलिये यह उतना ही प्राचीन है, जितनी कि भाषा।। प्राय यह समझा जाता रहा है कि प्राकृत जनो की, पालि बौद्धो की और सस्कृत ब्राह्मणो की भापा रही है । इस कथन मे सचाई भी है। किन्तु जन ग्रन्थकारो ने भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओ मे साहित्य-सर्जना की और विभिन्न भापाओ मे उनके लिखे हुए शब्दकोश भी सम्प्रति उपलब्ध है । अत युग विशेष की आम प्रचलित भाषा से वर्ग विशेष का सम्बन्ध जोडना उचित नहीं है। यह अवश्य कहा जा सकता है कि जैनो मे युग विशेष के अनुरूप साहित्य-रचना की प्रवृत्ति विशिष्ट रूप से लक्षित होती है। जैन साहित्य के इतिहास से यह भी स्पष्ट है कि ईसा की तीसरी शताब्दी के पूर्व कोई भी जैन रचना सस्कृत मे लिखी हुई नही मिलती। जैन परम्परा के अनुसार सम्पूर्ण जैन वाड्मय द्वादशागवाणी के अन्तर्गत निवद्ध है । मत कोश-साहित्य की रचनाए भी सत्यप्रवादपूर्व और विद्यानुवाद की पांच सौ महाविद्याओ मे से अक्षर विद्या मे सन्निविष्ट हैं । प्रारम्भ मे एकादश अगो, चतुर्दश पूर्वो के भाष्य, चूर्णिया, वृत्तियाँ तथा विभिन्न प्रकार की टीकाएँ कोश-साहित्य का काम करती रही, किन्तु जब कालान्तर मे उनका परिज्ञान न रहा, तब शब्दकोशो की आवश्यकता अनिवार्य हो उठी।" यह कथन सत्य ही है कि निघण्टु तथा शब्दकोशो की प्रारम्भिक परम्परा मौखिक रही है । जनो में यह परम्परा परवर्ती काल मे "नाम माला" के रूप में प्रचलित रही है। वास्तव मे यह पर-५५) व्यावहारिक आवश्यकता के अनुरूप स्वतन्त्र रूप से विकसित हुई। आदि तीर्थकर वृषभ के कयानक से यह स्पष्ट हो जाता है कि सृष्टि के आदि कल्प मे उन्होने जग के प्राणियो के हित के लिए असि, मसि, कृपि, वाणिज्य तथा
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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