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________________ प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३३३ 'भूतकृदन्त का भावे सप्तमी प्रयोग अपभ्र श मे धडल्ले से होता था। यही ढ। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी तथा अन्य सजातीय भापाओ मे भी सुरक्षित रहा। ऐसे ही भाव सप्तमी कृदन्तो से प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी के ईवाले पूर्वकालिक कृदन्त उत्पन्न हुए है।' 'नई' और 'करी' सप्तमी परसर्ग हैं। यही 'नई' आधुनिक राजस्थानी मे 'न' अथवा 'न' रह गया है। सभवत 'करी' का ही सक्षिप्त रूप क्रियार्थक सज्ञा प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे अण और इवउँ-----अवउँ प्रत्ययो से बनी है। यह अपभ्र श के अण से मिलती जुलती है। राजस्थानी मे----अण और-बा रूप प्रचलित है। १ जीमवा गयो छ ૨ ટેવ પાયો. इन्ही 'अ' वाले रूपो के साथ-हार जोडकर कर्तृवाचक सज्ञा बनाई जाती है । करणहार, भोगणहार आदि रूप इसी प्रकार बने है । केवल अण वाले रूप भी मिलते है-- १ दमंगल विण अपचौ दियण, वीर धणी रौ धाण (वीरसतसई १०) २ नह डाकी अरि खोबणो बायाँ केवल बार। वधावधी निज खाबणो, सो डॉकी सरदार ॥ ( , ११) ३ सहणी सबरी हूँ सखी, दो उर उलटी दाह ( , १४) ४ असिधाबण तो पीव पर, वारी वार अनेक सिधाबण ता पाव पर, वारा वार अनक , ४१) ५ इणरा भोगणहार जे आज भिडाणा आय ( , ४०) गद्य मे भी 'मायला बदलावा मे फूट रापौ लखाण रो बदलती नजरियो' जैसे प्रयोग मिलते है । आधुनिक राजस्थानी मे आलो लगाकर भी क्रियाक संज्ञा वनाई जाती है। परन्तु आलो के पूर्व वा वाला रूप होता है। 'जावाऽलो' 'देखबालो' आदि बोलचाल की भाषा के प्रयोग है। अणहार की व्याख्या मे टेसीटोरी ने लिखा है "यह प्रणवाली क्रियार्थक सज्ञा के षष्ठी रूप तथा 'कार' (करनेवाला) के सयोग से बना है। अपभ्र श के पालणह+कार से 'क' का लोप होकर पालणहार' वना।" अतएव यह स्पष्ट होता है कि आधुनिक राजस्थानी की क्रियायक संज्ञा का स्रोत भी प्राचीन है और किसी न किसी अश मे अपभ्र श से जुडा है । अपभ्र श से प्राचीन राजस्थानी मे प्रयुक्त होता हुआ ध्वनिपरिवर्तन के साथ आधुनिक राजस्थानी मे प्रचलित है।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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