SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 346
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१८ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा भी विभक्ति की तरह अर्थात् प्रातिपदिक के साथ सयुक्त होकर प्रयुक्त होता था, जैसे 'वच्छहु' आदि मे । माध्यमिक राजस्थानी मे यह एक परसर्ग की भांति प्रयुक्त हो रहा है। वीर सतसई मे 'यी' अपादान कारकीय परसर्ग के रूप में प्रयुक्त हुआ है 'देखीज निज गोख थी' (दोहा-८८) पीर सतसई मे 'हूत' अधिकरण मे भी आया है धावा कत पधारिया, पावाँ हूत प्रणाम (दोहा-११७) आधुनिक राजस्थानी की वोलियो मे 'सू' परसर्ग अपादान कारक में प्रयुक्त होता है 'ओ ही कारण है के शौरसेनी प्राकन सू विगम्योटी गुर्जरी अपभ्र स सू निकली जूनी गुजराती या राजस्थानी री परपरागत कविता ऊपर कथणी अर मडणी दोन्यू ही द्रिस्टिया मू अपभ्र स रो पूरी अर गरो असर दीख है।' (जागती जोत, पृ० ३१) अपादान के उपर्युक्त विवेचन में यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राकृत अपभ्र श का प्रभाव आशिक रूप से माध्यमिक राजस्थानी तक ही रहा। आधुनिक राजस्थानी मे प्रयोगात्मक स्थिति है, पृथक् से परसर्ग प्रयुक्त होता है। करणकारकीय और अपादान कारकीय रूप एक हो गए है। जहा तक सू' की व्युत्पत्ति का प्रश्न है, यह हूँ' का परिवर्तित रूप हो सकता है । 'स' का राजस्थानी मे 'ह' होता है, सभवत हूँ' से 'सं' विपर्यथित परिवर्तन हुआ हो । एक और प्रयोग भी अपादान मे मिलता है। जोधपुरु आयो है' अर्थात् प्रातिपदिक के साथ 'उँ' जुडता है, यह निश्चय ही अपभ्र श 'हुँ' का अवशेष है। इस दृष्टि से 'सू' और 'उँ' दोनो ही मूल रूप अपभ्र श की परपरा से आए प्रतीत होते है । काल प्रवाह मे ध्वनि-परिवर्तन हो गया है। सम्बन्ध कारक अपभ्रश मे सवध कारक एकवचन मे अकारान्त शब्दो के आगे 'सु', हो, स्सु आदेश होते है -डस सु हो सव । पर, तस और दुल्लह के इसके अनुसार परस्सु, तमु और दुल्लहो रूम बनते है । इस प्रक्रिया में भी रूपस्वनिमिक परिवर्तन नही होते। पहुवचन मे अकार के परे 'ह' आदेश होता है 'आमोह'। इकारान्त और उकारान्त शब्दो मे परे 'हुँ' आदेश होता है हुँ' चेदुद्भ्याम्'। सूत्र मे आए 'च' से पूर्वमूत्र का 'ह' भी ग्रहग करना पडेगा। अर्थात् इकारान्त और उकारान्त के आगे 'ह' और 'हँ' दोनो हो सकते है।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy