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________________ ३१६ ग-कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा पसाअ-+टा→पसा- अ | इ+पसाइ करण बहुवचन मे प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे ए तृतीया व० व० मे मिलता है, इँ भी प्रयुक्त हुआ है, इहिँ भी है। अपभ्र श मे तृतीया व०व० मे 'ए' स्त्रीलिंग मे और 'हि' अन्यत्र प्रयुक्त होता था । परन्तु राजस्थानी मे तृतीया व० व० मे-ए स्त्रीलिंग मे ही सीमित नही रहा, पुल्लिा मे भी चला। हिं' का 'ई' ही रह गया । बेलि की भाषा मे बहुवचन मे 'आँ' भी प्रयुक्त हुआ है । वीर सतसई मे भी बहु० व० मे 'आँ' माना जा सकता है १ तुंडा गज फेटा तुरी डाढा भड वोझाड (दोहा-५७) २ भाला थभ वणाय (दोहा-६०) तुड (एक० व०) तुडा (ब० व०) फेट (, ") फेटाँ (, , ) भालो (एक० व०) भाला (व० व०) भाला (व० व०) ३ भर खप्पर वाहै रुहिर (रुधिर से) आधुनिक राजस्थानी मे करण कारक की अभिव्यक्ति पृथक् शब्द से कराई जाती है। 'सू' ऐसा ही परसर्ग है, अचर तत्प है, लिंग-वचन और पुरुष से प्रभावित नही होता मिया-मिया सवदा सू नी वा सवदा र लार लुक्योडो एक उतावली हॉफ सू अरथ दिया करती। (जागती जोत, पृ० ५३) वीर सतसई के 'भाला', 'तुडा' मे व० व० और तृतीया ब०व० का एकीकरण है । आधुनिक राजस्थानी के उपर्युक्त उदाहरण मे 'सवदा केवल व० व० है । करणकारकीय परसर्ग 'सू' पृथक् से प्रयुक्त हुआ है। गद्य मे भी यह 'सू' ही चलता है (क) एक निजर सू देखा। (ख) ई दी० सू विचार करा । इसके साथ ही पगा-पगा चाल जैसे प्रयोग भी मिलते हैं। इस दृष्टि से आधुनिक राजस्थानी प्राकृत-अपभ्र श से पृथक हो गई है । करण कारक मे योगात्मक रूप नही मिलते, परसर्गीय 'सू' वाली सरचनाएँ ही प्रयुक्त होती हैं। माध्यमिक राजस्थानी तक ही अपभ्र श का प्रभाव रहा है । अपादान के मदर्भ मे अपभ्र श मे निम्नलिखित विधान का कथन है डसि~हे अकार/कार/उकार से परे और स्त्री एक वचन मे (डसि-भ्यस्डीना हे हु हय , इसेहे?) ___ डस् डस्यो है)
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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