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________________ २९८ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की ५.५ का प्रयोग मिलता है। कर्ता के अर्थ में डा० उदयनारायण तिवारी ने चदरवरदाई की भाषा मे 'ने' का प्रयोग स्वीकार किया है। कातिलता की भाषा मे कता के __ अर्थ में -आ, -ए, -ओ का प्रयोग हुआ है। कर्म के अर्थ मे 'को' का प्रयोग ११वी सदी से राउलवेल में मिलने लगता है। वीसलदेव रानो" में 'नू' 14 कातिलता मे 'हि', 'हिं' का प्रयोग कर्मकारक के अर्थ में हुआ है। करण के अर्थ मे फीतिलता में 'ए' एन' 'हि' का, पृथ्वीराज रासो मे 'ते', 'वाचा', 'स', सहु', 'मू', 'सो', तया खुसरो के काव्य मे 'से' का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार की स्थिति अन्य कारकीय अर्थों को व्यक्त करने के सम्बन्ध में है। ३ भाषा प्रकृति अर्द्ध अयोगात्मक आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ की विवेचना करते समय प्राय विद्वानो ने उन्हें अयोगात्मक भापायें कहा है । यह ठीक है कि हिन्दी' ने अपभ्र श की अर्द्ध-अयोगात्मक स्थिति की अपेक्षा अयोगात्मकता को और अधिक विकास किया है तथापि भापा-प्रकृति की दृष्टि से आज भी आधुनिक भारतीय आर्य भापायें अर्द्ध-अयोगात्मक हैं। शब्द के वैभक्तिक रूप भी मिलते है तया परमों का भी प्रयोग होता है। कारकीय रूपरचना मे विभिन्न भापालो मे विभक्तिया मंश्लि५८८५ मे भी व्यवहृत होती है। उदाहरणार्थ सिन्धी एवं पजाबी मे अपादान एव अधिकरण कारको मे, गुजराती मे करण एव अधिकरण मे, मराठी मे करण, सम्प्रदान तथा अधिकरण मे तया इसी प्रकार डिया मे अधिकरण मे विभक्तियो का सयोगात्मक रूप द्रष्टव्य है । वाला मे भी सम्बन्धितत्व मलिट रूप में प्राप्त होता है। हिन्दी मे भी सर्वनाम रूपों में कर्म सम्प्रदान में इसे, उसे, इन्हे, उन्हें, तुझे जसे रू५ मिलत है जिनकी प्रकृति सलिप्ट है। यह बात अलग है कि हिन्दी मे इनके वियोगात्मक रूप भी उपलब्ध हैं या इसको, उसको, उनको, इनको, તુબજો સી પ્રજાર વર્તમાન સન્માવનાર્ય પદ્ધ , પહે, પઢે, પઢો તયા નાજ્ઞાર્ય पना, पहियेगा, पटो, ५८ मे सयोगात्मकता की स्थिति देखी जा सकती है। ४ नपुसकलिगा की स्थिति अपभ्रश काल मे नपुसकलिग का लोप हो गया था। आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे मराठी एप गुजराती को छोडकर ५ ममी मे नपुसकलिग नहीं हैं। सिंहली मे प्राणी तया अप्राणीवाची आधार पर प्राणवान तथा प्राणहीन दो लिग है, जो द्रविड परिवार की भापाओ के प्रभाव के मूचक. प्रतीत होते हैं । २५ मे पुल्लिग एवं स्त्रीलिंग दो लिंग हैं। इनमे भी वगला एव डिया मे देशज शदी मे लिग विवान शिथिल है। जान बीम्स के अनुसार इनमे तत्सम शब्दो को छोडकर २५ शब्दो मे लिग व्यवस्था नही है । ५. बहुवचन द्योतक सदावली सिन्धी, मराठी तया पश्चिमी हिन्दी के
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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