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________________ २६४ गंगान-प्रावति व्याकरण और बोण नी परम्परा आर्य भाषाओ को जिस प्रकार सामान्य म्प गे प्रभावित किया है यहा गायन उगी प्रभाव की चर्चा प्रस्तुत की जा रही है। (ग) ध्वन्यात्मक १ प्राकृत अपभ्र श की ध्वन्यात्म अभिचनाओ एव प्रमुख स्वर वजन ध्वनिया आधनिक भारतीय आर्य भापामओ की केन्द्रवर्ती भाषाओं में सुरक्षित है। इसके विपरीत सीमावर्ती भार्य भागामओ में प्रात अपण यन्यात्मक अभिरचना से भिन्न ध्वन्यात्मक विपतामओ का भी विकास हुआ है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य है (क) असमिया मे दन्त्य एव मूर्धन्य व्यजनो की भेदकता एव वैपभ्य समाप्त हो गया है । तालव्य व्यजन दन्त्य गर्थी में तथा दन्त्य भी 'म्' का कोमल तालव्य सघी के रूप मे विकास हुआ है। (ख) मराठी मे चवर्गीय ध्वनियो का विकास दो स्पो में हुआ है तथा बरो की अनुनासिकता का लोप हो गया है। केन्द्रवर्ती भाषाओ मे पूर्व भारतीय आर्य भाषा की परम्परानु-प महाप्राण ध्वनियो का उपयोग होता है किन्तु यन्य भाषाओ मे सपो५ महाप्राण व्यजनो एव हकार का भिन्न-भिन्न रूपो मे उच्चारण होता है। इस दृष्टि से डा० सुनीतिकुमार पाटुज्या पूर्वी बगला मे क.५८नालीय स्पर्श के साथ-साथ आशिक रूप में विशिष्ट स्वर विन्यास का व्यवहार तथा पजावी मे स्वर विन्याम परिवर्तन मानते है तथा राजस्थानी मे ह-कार की जगह कण्ठनालीय स्पर्श ध्वनि तथा सधोप महाप्राणो के आश्वसित उच्चारण की उपस्थिति से यह अनुमान व्यक्त करते है कि राजस्थानी तथा गुजराती में इस प्रकार का उच्चारण कम से कम अपभ्र श काल की रि+य तो अवश्य ही है।" (घ) सिन्धी एवं लहदा मे अन्त स्फोटात्मक ध्वनियो का विकास हुआ है। (ड) पजावी मे तान का विकास हुमा तथा सघोप महाप्राण व्यजन तानयुक्त अल्पप्राण व्यजनो के रूप में परिवर्तित हो गए। इस सम्बन्ध मे डा० सुनीति कुमार चाटुा ने डा० सिद्धेश्वर वर्मा के मत का उल्लेख किया है कि श्रुति की दृष्टि से पजावी में 'भ, घ, ढ' आदि के परिवर्तन मे महाप्राणता सुनायी नही पडती, वाद के स्वर के साथ श्वास का कुछ परिमाण सलग्न रहता है, जो उसके स्वर-विन्यास की एक विशिष्टता माना जा सकता है । ५ २ 'ऋ' को कारण पालि युग मे ही समाप्त हो गया था। इसका उच्चारण आधुनिक भारतीय आर्य भापाओ मे 'र' 'रि' एवं 'रु' रूप मे हुआ। आज भी 'रि'
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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