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________________ प्राकृत एवं अपभ्रश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं पर प्रभाव डॉ० महावीर सरन जैन प्राकृत एव अपभ्रश के विविध भाषिक रूपो से ही आधुनिक भारतीय आर्य भापाओ के विविध रूपो का विकास १०वी से १२वी शताब्दी के बीच मे हुआ। यह बात अलग है कि इस विकास परम्परा का वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करना एक सीमा तक असम्भव सा है। इस सवध मे अभी तक जितने कार्य सम्पन्न हुए है उनमे अधिकाशत अज्ञात से ज्ञात की ओर आया गया है। इस सम्बन्ध मे यह ध्यान रखना जरूरी है कि सात से अज्ञात की ओर वैज्ञानिक ढग से उन्मुख होने पर ही अज्ञात अनुपलब्ध रूपो को पुनर्निर्मित किया जा सकता है और पुननिर्माण के सिद्धान्तो पर अविलम्बित होकर ही प्राकृत से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ तक की विकास यात्रा का वैज्ञानिक अध्ययन अशत सम्पन्न किया जा सकता है । आज हमारे पास प्राकृत एव अपभ्र श की जो सामग्री उपल०ध है उसके आधार पर आधुनिक भारतीय आर्य भापाओ के विकास की सारी कडिया अलगअला सुस्पष्ट रूप से जोड पाना दुष्कर कार्य है । इसके निम्नलिखित कारण है १ हमारे पास प्राकृत युग एव अपभ्रश युग के साहित्यिक भाषिक रूप ही उपलब्ध है। मध्य भारतीय आर्य भापाकाल मे उसके सम्पूर्ण क्षेत्र मे विभिन्न भोपाओ के जो विविध क्षेत्रीय एवं वर्गीय भाषिक रूप बोले जाते हो, वे उपलब्ध नहीं है। २ प्राकृत एव अपभ्र श के जो साहित्यिक भापिक रूप प्राप्त है उनके क्षेत्रीय प्रभेदो का विवरण मिलता है । इस सम्बन्ध मे विचारणीय यह है कि उपलब्ध क्षेत्रीय भेद आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ यथा पजावी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बगला, असमिया, उडिया आदि की भाति भिन्न साहित्यिक भावार्य है अथवा उस काल की किसी एक ही साहित्यिक प्राकृत अथवा
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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