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________________ २७४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा मल्लिषेण द्वारा उष्ट्र को एक प्रकार का पक्षी (उष्ट्र पक्षी विशे) वताना, गम्त साहित्य मे सुप्रसिद्ध है । टीकाकार शीला ने 'लेच्छइ' का अर्थ किया है लिप्सुक स च वणिगादि (मूनाताग टीका २, ? पृ० २७७ ब), अर्थात् लिप्सायुक्त वणिक् आदि को लिच्छवि कहते है। चूर्णीकार ने इस अर्थ का समर्थन किया है (सूनचूर्णी, पृ० ३१५)। पाइअसहमहणको मे लिच्छविका यही अर्थ दिया गया है। भज्झिमनिकाय के अकयाकार अश्वघोप ने लिच्छवि का मबध निच्छवि (पारदर्शक) शब्द से जोड दिया है, अर्थात् जो कुछ लिच्छवी लोग खाते थे, वह आरपार दिखाई देता था। आचाराग (२, ३, ३६६-४००) सूत्र में महावीर भगवान के वश और कुल आदि का वर्णन करते हुए कहा गया है कि लिच्छवी वश मे पंदा होने के कारण वे प्रियदर्शी और सुन्दर थे। आश्चर्य है कि फिर भी उत्तरकालीन टीकाकार लिच्छवी वश का अर्थ ही भूल बैठे। ऐसी हालत मे उनके जन्म और निर्वाण स्थान के सवव मे अनेक विसंगतियो एक विसवाद का उत्पन्न हो जाना अस्वाभाविक नही माना जायेगा। __५ साली-(वैशाली)। वैशाली (वसाट, जिला मुजफ्फरपुर) भगवान महावीर की जन्मभूमि थी। भगवतीसूत्र (शातक २) मे महावीर की जीवन संबंधी चर्चाओ के प्रसग मे महावीर के श्रावको को 'बमालियमावक' अर्थात् वैशालीनिवासी महावीर के श्रावक कहा गया है। किन्तु टीकाकार अभयदेव ने 'वैशालीय' का अर्थ विशाल गुण सपन्न (वेसालीए' गुणा अस्य विशाला इति वैशालीया ) कर डाला है । सूत्रकृताग मे भी भगवान महावीर को वेसालिय नाम से उल्लिखित किया गया है। लगता है कि इस प्रकार भ्रातियो के कारण ही विशाला नाम से प्रसिद्ध उज्जनी महावीर का जन्म स्थान मान ली गई। ६ कासव -(काश्य५) भगवान महावीर का गोत्र है। समवाया। (७) मे उल्लिखित सात गोत्रो मे कासव गोत्र सर्वप्रथम है। कल्पसूत्र मे कासवज्जिया नाम की जैन श्रमणो की शाखा का उल्लेख है। फिर भी आश्चर्य है कि टीकाकार अभयदेव सूरि ने इसका सवध इक्षुरस के साथ कैसे जोड़ दिया- काश उच्छु तस्य विकार कास्य रस स यस्य पान म काश्यप । ७ आजीविक आजीविक संप्रदाय की परपरा भी विस्मृत हो गई थी। सूत्रकृताग के टीकाकार शीलाक अमदिग्ध नही थे कि गोशाल के मतानुयायी ही आजीविक हैं, इसलिए उन्हे लिखना पडा – गोशाल-मतानुसारिया आजीविका दिगम्बरा वा (३ ३-८,पृ० ६० ब), अर्थात् वैकल्पिक रूप मे उन्होने दिगबरों को भी आजीविक बताया। निशीयचूर्णी १३-४४२० मे गोशाल के शिष्य अथवा पड र भिक्षुओ को आजीवक कहा है। उल्लेखनीय है कि पाइअसद्दमहण्णवो मे श्वेतावर सप्रदाय के भिक्षुओ को पड़र भिक्षु बताया है, जो ठीक नहीं।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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