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________________ २७२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा १६ अगठिम (वृ० भा० ३०६३) अर्थात् जिसमें गाठ न हो = कोला । २० उल्लुगच्छी (नि० भा० ३६८६), जो उल्लू की आय के समान हो = सूई की नोक। २१ खलहाण (नि० भा० ३१८०) = खलिहान । २२ झझड़िया (नि० भा० ३७०४) = ऋण न चुका सकने पर वणिको मे परस्पर होने वाला गाली गलोज । __ २३ डगलक (वृ० भा० ४ ४०९६) =शीच जाते समय ही पोछने के लिये जैन साधुओ द्वारा उपयोग मे लाये जाने वाले मिट्टी बादि के ढेले । २४ ६६९ (पिंड नि० ३६४) = जीना, मराठी और गुजराती मे दादर । २५ दोहसुत्त फरेइ (नि० सूत्र ५२४) = कातता है (भूत को बढ़ाता है)। २६ दुस्तिय (वृ० भा० ३२८१) = दौष्पिक-वस्त्र बेचने वाला । गुजरात व महाराष्ट्र मे दोशी, हिन्दी मे धुस्सा। सुदसणाचरिय मे दोसियह (वस्त्र की दुकान) का उल्लेख है। २७ पट्टखुर (वृ० भा० ३७४७) = गोल खुर वाला =धोडा। २८ सुमेही (वृ० भा० ३२५२) ---अच्छे घर वाली, क्या के अर्थ मे रूढ । २६ इडर (ोध नियुक्ति ४७६) =डी।। ३० उपपुर (वृ० भा० १९२५)-कचरे का ढेर, हिन्दी मे कूडी, गुजराती मे उकरडी। ३१ कट्टर (पिंड नि० ६२५) = कटी मे डाला हुआ घी का पडा। ३२ कडुहड पोलिक (०५० भा०६८) =गले मे दारुण कुरूप पोटली वाला काला बकरा। ३३ दोद्धिअ (व्य० भा० १० ४६४) = लौकी, मराठी मे दूधी। ३४ बप्प (नि० चूर्णी ३१८७) = वा५ । कतिपय सात के पडतो ने इसे __व५ (वीना) धातु से सिद्ध करने की चेष्टा की है। ३५ वठ (ओधनियुक्ति २१८) = अविवाहित, गुजराती मे वाढी। ३६ सीताजन्न (वृ० भा० १ ३६४७) =सीताय , हलदेवता के सम्मान मे किया जाने वाला उत्सव । ४ प्राकृत के कुछ शब्द जिनकी परम्परा विनष्ट हो गई है और अर्थ मे खीचा तानी करनी पड़ी है। (१) भिभिसार । जैन ग्रथो मे श्रेणिक (बौद्ध ग्रथो मे सेनिय अथवा विविमार) को भिमिसार (तुलनीय विविसार से), भिभिसार अयवा भंभसार भी कहा गया है। कहा जाता है कि कुशाप्रपुर (राजगृह) के महल मे आग लग जाने ५२ जल्दी-जल्दी में कोई राजकुमार हायी, कोई घोडा और कोई मणि-मुक्ता
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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