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________________ २५० सरकत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा प्राकृतप्रकाश के कर्ता वररुचि को ही प्राचीनतम प्राकृत वैयाकरण माना जाना चाहिए । रामशास्त्री तेलग ने इसका सम्पादन कर भात्र मूल पाठ के साथ १८६६ मे वाराणसी से प्रकाशित किया था। प्राकृतप्रकाश पर अनेक टीकायें भी लिपी गई है । बटुकनाय शर्मा और बलदेव उपाध्याय के सपादकत्व मे 'प्राकृत-मजरी' नामक कात्यायन की टीका निर्णयसागर प्रेस से १६१३ मे प्रकाशित हुई। इसके बाद वसन्तराज की मजीविनी और सदानन्द भी सुबोधिनी टीका के माय प्राकृत प्रकाश यू०पी० गवर्नमेट प्रेस से १९२७ मे सामने आया । एक अन्य सस्करण डा० पी० एल० वैद्य ने पूना से अंग्रेजी अनुवाद सहित १६.१ मे निकाला । उद्योतन शास्त्री भामह की मनोरमा व्याख्या के साथ (वाराणसी, १९४०), और कुनहन राजा ने रामपाणिवाद की व्याख्या के साथ (अडयार लायब्रेरी, मद्रास, १९४६) भी इसे प्रस्तुत किया। भामह और कात्यायन की वृत्तियो के साथ और बगाली अनुवाद के साथ वसन्तकुमार चट्टोपाध्याय ने इसका सम्पादन १६१४ मे कलकत्ता से प्रकाशित किया । दिनेशचन्द्र सरकार ने अपनी पुस्तक Grammer of the Prakrit Language (कलकत्ता विश्वविद्यालय,१९४३) मे प्राकृत प्रकाश का अग्रेजी अनुवाद तथा के० पी० त्रिवेदी ने गुजराती अनुवाद, (नवमारी, १६५७) भी प्रकाशित किया है। इसी का एक अन्य सस्करण भारतीय विद्या प्रकाशन वाराणसी से भी हुआ है। इन सभी सस्करणो मे प्राय प्रथम आठ अध्याय प्रकाशित हुए हैं जो दक्षिणी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं परन्तु E B. Cowell ने उसके बारह परिच्छेदो को सम्मिलित किया है। जगन्नाथ शास्त्री होशिंग का हिन्दी अनुवाद सहित प्राकृतप्रकाश का नवीन सस्करण भी उल्लेखनीय है (वाराणसी, १६५६) इसके बाद चण्ड के प्राकृत लक्षण को Hoerrle के सस्करण के आधार पर देवकीकान्त ने पुन सम्पादित कर कलकत्ता से १९२३ मे निकाला। उसी का एक अन्य सस्करण सत्यविजय जैन ग्रन्थमाला की ओर से अहमदाबाद से भी १९२६ मे प्रकाशित हुआ। लीविश ने अपने 'पाणिनि' ने चण्ड के स्थान पर 'चन्द्र' माना पर मण्डारकर के उद्धरणो से ही यह नाम चण्ड ही सिद्ध होता है।" लकेश्वर की प्राकृत कामधेनु या प्राकृत लकेश्वर रावण का प्रथम सम्पादन मनमोहन घोष ने किया, जिसे उन्होने प्राकृत कल्पतर के साथ (परिशिष्ट क्रमाक २, पृ० १७०-१७३) प्रकाशित किया। क्रमदीश्वर का 'सक्षिप्तसार' यद्यपि प्रथमत Lassen ने किया पर उसका सम्पूर्ण सस्करण राजेन्द्रलाल मित्र ने Bibliothika Indica मे कलकत्ता से १८७७ मे प्रकाशित किया और इसी का एक अन्य सस्करण कलकत्ता से ही १८१६ मे हुआ। पुरुषोत्तम की प्राकृत शब्दानुशासन को Nitti Dolci के बाद मनमोहन घोष ने प्राकृत कल्पता के परिशिष्ट क्र० १, पृ० १५६-१६६ पर सपादित कर अग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया। रामतर्फवागीश भट्टाचार्य का प्राकृत
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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