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________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान : २४१ उपवर्ग ने अपनाया तथा प्राकृत सामान्य समाज की अभिव्यक्ति का साधन बना रही । यही कारण है कि सस्कृत नाटको मे सामान्य जनो से प्राकृत मे ही वार्तालाप कराया गया। ____ डा० पिशल ने होइफर, लास्सन, याकोबी, भडारकर आदि विद्वानो के इस मत का सयुक्तिक खण्डन किया है कि प्राकृत का मूल केवल सस्कृत है । उन्होने सेनार से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि प्राकृत भापाओ की जड़ें जनता की बोलियो के भीतर जमी हुई हैं और उनके मुख्य तत्त्व आदि काल मे जीती-जागती और बोली जाने वाली भाषा से लिए गए हैं, किन्तु बोलचाल की वे भाषायें, जो बाद को साहित्यिक भाषाओ के पद पर चढ गईं, सस्कृत की भाति ही बहुत ठोकीपीटी गई, ताकि उनका एक सुगठित रूप बन जाय । अपने मत को सिद्ध करने के लिए उन्होने सर्वप्रथम वैदिक शब्दो का प्राकृत शब्दो से साम्य बताया और बाद मे मध्यकालीन और आधुनिक भारतीय बोलियो मे सनिहित प्राकृत भाषागत विशेषताओ को स्पष्ट किया। इसमे कोई सन्देह नहीं कि जिस प्रकार वैदिक भाषा उस समय की जनभाषा का परिष्कृत रूप है, उसी प्रकार साहित्यिक प्राकृत भी प्राकृत बोलियो का परिस्कृत रूप है। उत्तरकाल मे तो वह सस्कृत व्याकरण, भाषा और शैली से भी प्रभावित होती रही। फलत लम्बे-लम्बे समास और सस्कृत से परिवर्तित प्राकृत रूपो का प्रयोग होने लगा। प्राकृत व्याकरणो की रचना की आधारशिला मे भी इस प्रवृति ने काम किया। प्राकृत भाषा पर देशी-विदेशी विद्वानो ने काफी अध्ययन अनुसन्धान किया है, फिर भी उसे हम सपूर्ण नहीं कह सकते । अध्ययन कभी सम्पूर्ण होता भी नहीं । यहा हम प्राकृत भाषा और व्याकरणशास्त्र पर जो भी पाश्चात्य विद्वानो ने कार्य किया है, उसका सक्षिप्त सर्वेक्षण प्रस्तुत कर रहे है। हम अपने इस सर्वेक्षण को स्थूलत पाच भागो मे विभाजित कर सकते हैं। १. भाषाविज्ञान के आधार पर प्राकृत भाषाओ का अध्ययन । २ प्राकृत व्याकरणो का अध्ययन । ३ प्राकृत भाषाओ पर आधुनिक भाषाओ मे लिखे गए व्याकरण । ४ प्राकृत भाषाओ का आलोचनात्मक अध्ययन । ५ सस्कृत नाटको मे प्रयुक्त बोलियो का अध्ययन । १ प्राकृत भाषाओ का भाषावैज्ञानिक अध्ययन प्राकृत भाषाओ ने पाश्चात्य विद्वानो को अपनी विशेषताओ की ओर १९वी शताब्दी के मध्यकाल मे आकर्षित किया। A Hoefer सम्भवत प्रथम विद्वान् रहे होगे जिन्होने १८३६ मे Berotini से De Prakuta Dialecto Libri duo
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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