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________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २२५ ७० द्रष्टव्य, वनर्जी, एम० आर०, 'चण्डीदेवाज् प्राकृतदीपिका, कमेन्टरी आफ क्रमदीश्वराज प्राकृत ग्रामर आइडेन्टीकल विद द वृत्ति आफ जुमरनन्दि, अ० भा० प्राच्यविद्या सम्मेलन, १६६८ । ७१ पिशल, वही, पृ० ८६-९२ । ७२ द्रष्टव्य - शास्त्री, प्रा० भा० सा० का इ०, पृ० ७९-८० । ७३ द्रष्टव्य, मार्कण्डेय - 'प्राकृतसर्वस्व' १२ ३८ एव क्रमदीश्वर - 'सक्षिप्तसार' आदि । ७४ द्रष्टव्य, उपासगदमाओ की टीका । ७५ शास्त्री, नेमिचन्द्र, प्रा० भा० सा० इ०, पृ० ६०-६५ । ७६ विस्तार के लिए द्रष्टव्य, पिशल, 'प्राकृतभाषाओ का व्याकरण' ७७ द्रष्टव्य, शास्त्री, देवेन्द्रकुमार, 'अपभ्रश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तिया' ७८ श्रीवास्तव, वीरेन्द्र, 'अपभ्र श भाषा का अध्ययन' ७६ जैन, देवेन्द्र कुमार, 'अपन भाषा और साहित्य'
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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