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________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २२१ भाषाओ का प्रयोग होने लगा था। अत मध्ययुग के प्राकृत वैयाकरणो ने शाकारी, ढकी, चाण्डाली, आभीरी आदि वोलियो का भी नियमन किया है। किन्तु ये सभी भापाए थोडे-सी भिन्नता के उपरान्त उपर्युक्त प्रमुख प्राकृतो के अन्तर्गत आ जाती है। अपभ्रश प्राकृत भाषाओ के अन्तर्गत वैयाकरणो ने अपभ्रश भाषा का भी नियमन किया है। उनमे हेमचन्द्र प्रमुख है । अपभ्र श भापा मे छठी शताब्दी के लगभग से साहित्य रचना होने लगी थी और १२वी शताब्दी तक यह साहित्यिक भाषा बन चुकी थी। हेमचन्द्र ने अपभ्र श को व्याकरण के नियमो से बाधने का प्रयत्न भी इसी युग मे किया था। अपभ्रश मे प्राकृत व्याकरण से भिन्न कई विशेषताए पायी जाती है । यथा -- १ यह अपभ्र श उकार वहुला होती है। २ स्वर आपस मे बदल जाते है। यथा -- सीता>सीय, माना>मेत्त, मूल्य > मोल्ल आदि। ३ आदि व्यजन मे भी अपवादस्वरूप परिवर्तन हो जाते है। यथादुहिता>धीय, यमुना> जमुना आदि। ४ कुछ व्यजन ही बदल जाते हैं। यथा क्रीड> खेल, कपर>खप्पर, दहति > डहइ। ५ शब्दरूप तथा क्रियारूप अधिक सरल है । ६ सर्वनामो मे पर्याप्त परिवर्तन हुमा है । यथा अहम् >हउ, >अहे, (वम् >तुहु ५६ आदि। ७. अनुकरणमूलक धातुओ का सर्वाधिक प्रयोग। ८ ह्रस्व स्वर को अनुस्वार । यथा दर्शन > दसण, स्पर्श> फस, अश्रु> असु आदि। ६ मकार को विकल्प से अनुनासिक । यथा - कमल > कलु, भ्रमर > भवर आदि। इसी तरह की अनेक विशेषताए हैं जो समय-समय पर अपभ्र श भाषा साहित्य मे सम्मिलित होती रही हैं, जिनका अनुशासन वैयाकरणो ने किया है । इस प्रकार प्राकृत व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे अनेक प्राकृत भाषाओ के स्वरूप का नियमन प्राकृत वैयाकरणो द्वारा हुआ है। किन्तु उनमे अनुकरण की प्रवृत्ति अधिक है। कुछ ही ग्रन्थकारी मे मौलिकता है। कभी-कभी तो इन प्राकृत वैयाकरणो के निष्कर्ष एक-दूसरे के विरुद्ध भी पडते है । यथा भरतमुनि ने मध्य और सयुक्त व्यजन मे 'न' को 'ण में परिवर्तित माना है । जव कि हेमचन्द्र देश्यभाषा
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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