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________________ २०२ गस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा 'प्राकृत लक्षण' पर सूत्रकार चड ने स्वय वृत्ति की रचना की है। इस वृत्ति मे उन्होंने सूत्रो को सक्षेप मे स्पप्ट किया है । इस वृत्ति का प्रकाशन सन् १८८० मे कलकत्ता से विलिओयेका इण्डिका में हुआ। उसके बाद १६२३ मे वही से श्री देवकीकान्त भट्टाचार्य ने इसे प्रकाशित किया और बाद में मुनि दर्शनविजय निपुटी द्वारा संपादित होकर यह वृत्ति चारितग्रन्थमाला अहमदाबाद से प्रकाशित हुई वररुचि-प्राकृत प्रकाश . प्राकृत वैयाकरणो मे चण्ड के वाद वररुचि प्रमुख वयाकरण है । प्राकृतप्रकाश मे वणित अनुशासन पर्याप्त प्राचीन है । अत विद्वानो ने वररुचि को ईसा की चौथी शताब्दी के लगभग का विद्वान् माना है । विक्रमादित्य के नवरत्नो मे भी एक वररुचि थे । वे सम्भवत प्राकृतप्रकाश के ही लेखक थे। छठी शताब्दी से तो प्राकृतप्रकाश पर अन्य विद्वानो ने टीकाए लिखना प्रारम्भ कर दी थी। अत वररुचि ने ४-५वी शताब्दी में अपना यह व्याकरण ग्रन्थ लिखा होगा। प्राकृतप्रकाश विषय और शैली की दृष्टि से प्राकृत का महत्वपूर्ण व्याकरण है। प्राचीन प्राकृतो के अनुशासन की दृष्टि से इसमे अनेक तथ्य उपलब्ध होते हैं। अत न केवल प्राचीन आचार्यों ने इस पर कई टीकाए लिखी हैं, अपितु आधुनिक युग मे भी इसके कई सस्करण प्रकाशित हुए है। यथा हार्ट फोर्ड वनारस ૨ જીવન १८५४ द प्राकृत प्रकाश, प्र० स० २ , १८६८, भामह की टीका सहित, द्वि० स० लन्दन ३ रामशास्त्री तलग, १८६६ मूल पाठ, वनारस ४ वसन्तकुमार शर्मा १६१४ कात्यायन और भामह की वृत्तियो कलकत्ता વટ્ટોપાધ્યાય तथा वगाली अनुवाद सहित ५ , १६२७ वसन्तराज और सदानन्द ની દીવાલો સહિત ६ पी० एल० वद्य १६३१ । भूमिका, पाठभेद सहित मूलपा०, પૂન યશેની મનુવાવ ७ उद्योतन शास्त्री १९४० मनोरमा टीका सहित વારાણસી કવયરામ ડવ રાત ૧૯૭૭ મનોરમાં વ્યસ્થા સહિત वाराणसी वि० स० 6 डी०सी० सरकार १९४३ मूलपा० एव अग्रेजी अनुवाद कलकत्ता યુનિવર્સિટી
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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