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________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास १६६ प्राकृत के व्याकरण पर भी बहुत कुछ लिख सकता था। सम्भवत उसने अपने सस्कृत व्याकरण के परिशिष्ट के रूप मे प्राकृत व्याकरण लिखा हो। किन्तु पाणिनि का प्राकृत व्याकरण न तो मिलता है, न उसके उद्धरण ही कही पाये जाते हैं ।१४ किन्तु पाणिनि के सस्कृत व्याकरण मे ही कई प्राकृत धातुओ का उल्लेख है १५ और पाणिनि के समय मे प्राकृत का प्रयोग भी होने लगा था अत पाणिनि के प्राकृत व्याकरण के उपलब्ध होने की अभी भी सभावना की जा सकती है। स्वयम्भू-व्याकरण अपभ्रश के प्रसिद्ध एक प्राचीन कवि स्वयम्भू की अनुपलब्ध रचनाओ मे एक स्वयम्भू व्याकरण भी है। इस ग्रन्थ के सम्बन्ध मे कहा गया है कि अपभ्र श का मस्त गज तभी तक स्वच्छन्द घूमता है जब तक स्वयम्भू का व्याकरण रूपी अकुश उसे नही लगा। यद्यपि इस उल्लेख मे स्वयम्भू व्याकरण की विषय-वस्तु स्पष्ट नही होती, किन्तु वह महत्वपूर्ण व्याकरण रहा होगा। प्राकृत और अपभ्र श के सधिकाल का यह व्याकरण होने से उससे प्राकृत के व्याकरण पर भी प्रकाश पड सकता है। किन्तु अभी तक यह स्वयम्भू-व्याकरण उपलब्ध नही हुआ है। अन्य प्राकृत व्याकरण जनप्रन्थावलि (पृ० ३०७) ५२ उल्लेख है कि देवसुन्दरसूरि ने 'प्राकृतयुक्ति' नाम का व्याकरण लिखा था। अभी यह उपलब्ध नही हुआ । हैमशब्दानुशासन के आठवे अध्याय पर १५०० श्लोक-प्रमाण 'हेमदीपिका' अथवा 'प्राकृतवृत्तिदीपिका' की रचना द्वितीय हरिभद्र ने की है। किन्तु यह अनुपलब्ध है।" पिशल द्वारा सम्पादित शाकुन्तलम् की चन्द्रशेखरवृत्त टीका मे 'प्राकृत साहित्य रत्नाकर' नामक ग्रन्थ का उल्लेख है, यह भी आज तक अनुपलब्ध है । 'प्राकृत कौमुदी' नामक ग्रन्थ की भी उपलब्धि अभी नहीं हुई है, जिसका उल्लेख पिशल ने किया है। अभी जैसे-जैसे जैन साहित्य प्रकाश मे आयेगा यह सूची और घट-बढ सकती है । प्राकृत वैयाकरण एव उनके ग्रन्थ उपलब्ध प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ सभी सस्कृत मे लिखे गये है। प्राकृत वैयाकरणो एव उनके ग्रन्थो का परिचय डा० पिशल ने अपने ग्रन्थ मे दिया है। डोल्पी नित्ति ने अपनी जर्मन पुस्तक 'ले ग्रामरिया प्राकृत' (प्राकृत के वैयाकरण) मे आलोचनात्मक शैली में प्राकृत के वैयाकरणो पर विचार किया है। इधर प्राकृत व्याकरण के बहुत से ग्रन्थ छपकर प्रकाश मे भी आये है। उनके सम्पादको ने भी प्राकृत वैयाकरणो पर कुछ प्रकाश डाला है। इस सब सामग्री के आधार पर
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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